मंगलवार, 10 मार्च 2015

दोहरा व्यक्तित्व

आदमी का दोहरा व्यक्तित्व हो गया है। एक जो ऊपर से दिखाई पड़ने लगता है। और एक, एक जो भीतर होता है।

इस द्वैत में इतना तनाव है, इतनी अशांति है, इतनी कानफ्लिक्ट है। होगी ही, क्योंकि जब एक आदमी दो हिस्सों में टूट जाएगा--एक जैसा वह है, और एक जैसा वह लोगों को 
दिखलाता है कि मैं हूं।

मैंने सुना है कि शहर में एक अदभुत फोटोग्राफर था , उसने अपने स्टूडियो के सामने एक तख्ती लगा रखी थी। उस तख्ती पर उसने फोटो उतारने के दाम की सूची लिख रखी थी। उस पर उसने लिख रखा था: जैसे आप हैं, अगर वैसा ही फोटो उतरवाना है तो पांच रुपया , दस रुपया में एक दम बेहतरीन फोटो और जैसा आप चाहते हैं आप कि जो कल्पना है , अगर वैसी फोटो उतरवानी है तो पंद्रह रुपया ।

एक गांव का ग्रामीण पहुंचा। वह भी चित्र उतरवाना चाहता था। वह हैरान हुआ कि चित्र भी क्या तीन प्रकार के हो सकते हैं। और उसने उस फोटोग्राफर से पूछा कि क्या पांच रुपए को छोड़कर कोई दस और पंद्रह का फोटो भी उतरवाने आता है?

उस फोटोग्राफर ने कहा, तुम पहले आदमी हो, जो पांच रुपए वाला फोटो उतरवाने का विचार कर रहे हो। अब तक तो यहां कोई पांच रुपए वाला फोटो उतरवाने नहीं आया। जिनके पास पैसे होते हैं, वे पंद्रह रुपए वाला ही उतरवाते हैं। मजबूरी, पैसे कम हों तो दस रुपए वाला उतरवाते हैं। लेकिन मन उनका पंद्रह वाला ही रहता है कि उतरे तो अच्छा। पांच रुपए वाला तो कोई मिलता नहीं। जो जैसा है, वैसा चित्र कोई भी उतरवाना नहीं चाहता है।

हम अपने व्यक्तित्व को ऐसी पर्त-पर्त ढांके हुए हैं। इससे एक पाखंड पैदा हुआ है। इस पाखंड से सारा मनुष्य-चित्त रुग्ण हो गया है ।

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