मंगलवार, 17 मार्च 2015

लगन का फल

एक मित्र द्वारा भेजा एक संस्मरण

जिन दिनों मेरी शादी हुई थी मेरी सास दिल्ली के एक
प्राइमरी सरकारी स्कूल में टीचर थीं। मैं अक्सर उन्हें गर्मी, सर्दी, बरसात
में भागते हुए स्कूल जाते देखता। एक तो सरकारी स्कूल, ऊपर से
प्राइमरी स्कूल। मैं बहुत बार सोचता कि एक प्राइमरी स्कूल में अगर टीचर
समय पर न भी पहुंचे तो कौन सा तूफान आ जाने वाला है। एकाध दफा तो मैं
उनके घर गया होता और वो मेरे जागने से पहले ही स्कूल जा चुकी होती थीं। डाइनिंग टेबल पर मेरे लिए आलू परांठे, लस्सी, चटनी सब ताजा बना कर
वो सुबह-सुबह स्कूल चली जातीं और दोपहर में घर चली आतीं। एक तो ससुराल, दूसरे पंजाबी ससुराल। मेरे पल्ले आज तक ये बात
नहीं पड़ी कि पंजाबी लोग तले हुए परांठे के ऊपर मक्खन क्यों लगाते हैं।
मक्खन के साथ-साथ फुल साइज गिलास में मलाई मार के लस्सी और फिर
दोपहर में पनीर की सब्जी पर इतना ज़ोर क्यों देते हैं। मैं तो शुरू-शुरू में इस
बात पर हंस-हंस कर पागल हो जाता था कि दोपहर के खाने में मां (माह)
की दाल, राजमा, पालक-पनीर, मटर-पनीर और शाही पनीर के बिना पंजाबियों की मेहमानवजी अधूरी क्यों रह जाती है। खैर
इसका नतीजा ये हुआ कि शादी में मैं कुल जो 62 किलो का था, शादी के
साल भर बाद 74 किलो का हो गया। लगने वाले
को तो दिल्ली का पानी भी लग जाता है, मैं तो सीधे-सीधे ससुराल
का घी पी रहा था। खैर, आज की कहानी ससुराल सेवा की अमर गाथा सुनाने के लिए नहीं लिख
रहा। आज कहानी का सारांश इस तरह है कि मेरी सास बिना नागा, बिना देर किए
रोज स्कूल पहुंच जाती थीं। उस सरकारी स्कूल में जिसे सरकार
भी सीरियसली नहीं लेती थी। जिस स्कूल को स्कूल का चपरासी तक
सीरियसली न लेता हो उस स्कूल में मेरी सास ने कभी बिन बताए
छुट्टी नहीं लीं, कभी देर से नहीं पहुंचीं। एक दिन मैंने अपनी सास को बताया कि मेरे स्कूल में ओम प्रकाश मास्टर
कई बार नहीं आते थे तो कोई ऐक्शन नहीं लिया जाता था, फिर आप
प्राइमरी स्कूल के बच्चों को पढ़ाई को इतनी गंभीरता से क्यों लेती हैं?
एकाध दफा देर हो जाए तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? वैसे
भी सरकारी स्कूल में कौन सी पढ़ाई होती है जो इतनी माथा-
पच्ची की जाए? मेरी सास ने मेरे सवाल का जवाब देने से पहले मुझसे सवाल किया, "उस
ओमप्रकाश मास्टर के बच्चे क्या करते हैं?" मैंने दिमाग पर बहुत ज़ोर डाला। फिर बताया कि उनके बच्चे क्या कर रहे
हैं, ये तो नहीं पता लेकिन उनकी बड़ी बेटी दसवीं तक ही पढ़ाई कर पाई थी,
फिर उसकी पढ़ाई छूट गई थी। बेटा भी ठीक से नहीं पढ़ पाया तो छोटा-
मोटा काम पकड़ लिया था। मेरी सास ने फिर कहा, "उन सभी मास्टरों को याद करो जिन्होंने अपने
काम को ईमानदारी से अंजाम नहीं दिया, मेरा मतलब, पढ़ाने में
कोताही बरती, बच्चों को पढ़ाने की जगह स्वेटर बुनने या घर के काम
कराने में समय खर्च किया, या ट्यूशन आदि पर अधिक ध्यान दिया।"
मैंने फिर दिमाग पर जोर डाला। पंडित मास्टर जी की याद आई। संस्कृत
पढ़ाते थे। पढ़ाते क्या थे बातें बनाते थे। बच्चों से कद्दू, पपीता, केला बतौर उपहार लेकर कॉपी में नंबर दिया करते थे। उस पंडित मास्टर
की बेटी पता नहीं क्यों छठी के बाद ही स्कूल छोड़ गई थी। बहुत बाद में
पता चला कि उसकी शादी हो गई थी, पर पति ने उसे भी छोड़ दिया था। फिर एक-एक कर मैंने बहुत से मास्टरों को याद किया। उन
मास्टरों को भी याद किया जो सचमुच बहुत ईमानदारी से पढ़ाते थे। जिन्होंने
कभी बेवजह नागा नहीं किया। याद आया गणित वाले पारस नाथ सिंह मास्टर
का बेटा तब इंजीनियर बन कर अमेरिका गया था, जब
अमेरिका का दरवाजा सबके लिए नहीं खुला था। हिंदी वाले उपेंद्र राय
मास्टर की बेटी तो मेरी आंखों के आगे डॉक्टर बनी थी। मैं अपनी यादों में डूबा था, मेरी सास ने मुझे टोका, "कहां खो गए,
बेटा जी?" "मैं अपने मास्टरों को याद कर रहा हूं।" "क्या याद किया?" यही कि ओमप्रकाश मास्टर के बच्चे ठीक से नहीं पढ़ पाए। संस्कृत के
मास्टर की बिटिया का भी यही हाल था। पारस नाथ सिंह और उपेंद्र मास्टर
की कहानी भी मैने सुनाई। मेरी सास मुस्कुराईं। उन्होंने कहा कि मैंने इसीलिए आपको याद करने
को कहा था। जो मास्टर बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करता है, दरअसल
किस्मत उसके साथ खिलवाड़ कर देती है। जिन बच्चों को स्कूल पढ़ने के
लिए भेजा जाता है, या जो बच्चे स्कूल सिर्फ पढ़ने के लिए आते हैं, उन्हें
ईमानदारी से पढ़ाना चाहिए। जो लोग ये सोचते हैं कि कुछ भी करें, काम
तो चल जाएगा, उनका अपना काम अटक जाता है। अक्सर ज्यादातर शिक्षक के बच्चे ही नहीं पढ़ पाते। मैंने एक भी दिन बच्चों के साथ बेईमानी नहीं की। देख लो,
दोनों बेटियां पढ़ाई में कैसी निकलीं।
मेरी दोनों बेटियां स्कूल-कॉलेज में टॉप करती रहीं। मतलब ये कि जैसे करम करोगे, वैसा फल मिलेगा। जो अपने काम
को ईमानदारी से अंजाम नहीं देते, उनके साथ ज़िंदगी कब बेईमानी कर
बैठती है, पता भी नहीं चलता। पता नहीं कहां-कहां से ठंड में, गर्मी में,
बरसात में बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए आते हैं, ज्ञान की प्राप्ति के लिए
आते हैं, मां-बाप की मुराद पूरी करने आते हैं। उनके अनजान भविष्य से
कभी खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। तो बेटा जी, आपके सवाल का जवाब इतना ही है कि मैं हर रोज समय पर
स्कूल इसलिए जाती हूं ताकि किसी बच्चे की उम्मीदें अधूरी न रह जाएं,
ताकि मेरे बच्चों के भविष्य के साथ कोई मास्टर या मास्टरनी खिलवाड़ न
करे। जो हमें अपने लिए नहीं पसंद, उसे हम दूसरों के साथ क्यों करें? काम वही सफल होता है जो पवित्र भाव से संपूर्ण मनोयोग से किया जाता है।
मैं स्कूल समय पर जाती हूं ताकि जो पैसा घर आए वो तन और मन
दोनों को लगे। आपके पिताजी ने भी तो यही सिखाया था न
आपको कि पैसा कितना कमाया उससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि पैसा कैसे
कमाया। तो मैं भी, जितनी भी सैलरी मिलती है, उसे मेहनत और
ईमानदारी का बना कर घर लाना चाहती हूं। छोटे बच्चों को धोखा देकर लाया गया पैसा कितना सफल होता? वो कह रही थीं, वैसे तो सभी कामों में आदमी को ईमादार होना चाहिए,
लेकिन पढ़ाने के काम में तो पक्के तौर पर। आखिर ये देश के भविष्य
का सवाल है। जो शिक्षक अपने काम में बेईमानी करते हैं, उन्हें भगवान
भी माफ नहीं करता। मैं चुप था। सचमुच अगर सारे टीचर ऐसा सोचते तो हम कुछ और होते। कुछ और। नए साल पर मैं हर बार कुछ न कुछ प्रतिज्ञा करता हूं, इस बार
की प्रतिज्ञा है, जो भी करुंगा लगन से करुंगा। संपूर्ण मन से
करुंगा ताकि भूल कर भी कोई भूल हो न।

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