मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

मृत्यु से भय कैसा

*जब मृत्यु का भय सताये तब इस कथा को पढ़ें एवं भविष्य में सदैव स्मरण रखें*_

( *मृत्यु से भय कैसा*)....
   
    । *सुन्दर दृष्टान्त*।।

राजा परीक्षित को _*श्रीमद्भागवत*_ पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ।

अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।राजन !
बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा।
उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी।

जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया।

वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था।अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी।उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।

बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं।
मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।

इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं।ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।

इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता।
मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा।
उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है।

बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी l
बहेलिये ने सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया ।
राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।
सोने पर झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा।अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वह वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।वह बहेलिये से अपने और ठहरने की प्रार्थना करने लगा।

इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा।राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर विवाद खड़ा हो गया । कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा,"परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा रहने के लिए झंझट करना उचित था ?"
परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ?
वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है।
उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।

"श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित !
वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं।
इस मल-मूल की गठरी देह (शरीर) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था,
वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं।
फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते।
क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?

राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् !
मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा।

और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया ( और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता ।

अतः संसार में आने के अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचाने और उसको प्राप्त करें ऐसा कर लेने पर आपको मृत्यु का भय नहीं सताएगा।।

*हरेकृष्ण*

रविवार, 22 अक्तूबर 2017

सन्तान के लिए विरासत

सन्तान के लिए विरासत

मृत्यु के समय,
टॉम स्मिथ ने अपने बच्चों को
बुलाया और अपने पदचिह्नों
पर चलने की सलाह दी,
ताकि उनको अपने हर कार्य
में मानसिक शांति मिले।

उसकी बेटी सारा ने कहा,
डैडी, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि
आप अपने बैंक में एक पैसा
भी छोड़े बिना मर रहे हैं।
दूसरे पिता, जिनको आप
भ्रष्ट और सार्वजनिक धन के
चोर बताते हैं, अपने बच्चों के
लिए घर और सम्पत्ति छोड़कर
जाते हैं। यह घर भी जिसमें
हम रहते हैं किराये का है।

सॉरी, मैं आपका अनुसरण
नहीं कर सकती। आप जाइए,
हमें अपना मार्ग स्वयं बनाने
दीजिए।

कुछ क्षण बाद उनके पिता
ने अपने प्राण त्याग दिये।

तीन साल बाद, सारा एक
बहुराष्ट्रीय कम्पनी में इंटरव्यू
देने गई। इंटरव्यू में कमेटी के
चेयरमैन ने पूछा,
"तुम कौन सी स्मिथ हो?"

सारा ने उत्तर दिया,
मैं सारा स्मिथ हूँ।
मेरे पिता टॉम स्मिथ
अब नहीं रहे।

चेयरमैन ने उसकी बात काट
दी, "हे भगवान! तुम टॉम
स्मिथ की पुत्री हो?"

वे कमेटी के अन्य सदस्यों
की ओर घूमकर बोले, यह
आदमी स्मिथ वह था जिसने
प्रशासकों के संस्थान में मेरे
सदस्यता फ़ार्म पर हस्ताक्षर
किये थे और उसकी संस्तुति
से ही मैं वह स्थान पा सका हूँ,
जहाँ मैं आज हूँ। उसने यह
सब कुछ भी बदले में लिये
बिना किया था। मैं उसका पता
भी नहीं जानता था और वह भी
मुझे कभी नहीं जानता था।
पर उसने मेरे लिए यह सब
किया था।

फिर वे सारा की ओर मुड़े,
मुझे तुमसे कोई सवाल नहीं
पूछना है। तुम स्वयं को इस
पद पर चुना हुआ मान लो।
कल आना, तुम्हारा
नियुक्ति पत्र तैयार मिलेगा।

सारा स्मिथ उस कम्पनी में
कॉरपोरेट मामलों की प्रबंधक
बन गई। उसे ड्राइवर सहित
दो कारें, ऑफिस से जुड़ा हुआ
डुप्लेक्स मकान और एक लाख
पाउंड प्रतिमाह का वेतन अन्य
भत्तों और ख़र्चों के साथ मिला।

उस कम्पनी में दो साल कार्य
करने के बाद, एक दिन कम्पनी
का प्रबंध निदेशक अमेरिका से
आया। उसकी इच्छा त्यागपत्र
देने और अपने बदले किसी
अन्य को पद देने की थी।
उसे एक ऐसे व्यक्ति की
आवश्यकता थी जो बहुत
सत्यनिष्ठ (ईमानदार) हो।
कम्पनी के सलाहकार ने
उस पद के लिए सारा स्मिथ
को नामित किया।

एक इंटरव्यू में सारा से
उसकी सफलता का राज
पूछा गया। आँखों में आँसू
भरकर उसने उत्तर दिया,
मेरे पिता ने मेरे लिए मार्ग
खोला था। उनकी मृत्यु के
बाद ही मुझे पता चला कि
वे वित्तीय दृष्टि से निर्धन थे,
लेकिन प्रामाणिकता,
अनुशासन और सत्यनिष्ठा
में वे बहुत ही धनी थे।

फिर उससे पूछा गया कि
वह रो क्यों रही है,
क्योंकि अब वह बच्ची नहीं
रही कि इतने समय बाद
पिता को अभी भी याद
करती हो।

उसने उत्तर दिया,
मृत्यु के समय, मैंने ईमानदार
और प्रामाणिक होने के
कारण अपने पिता का
अपमान किया था।
मुझे आशा है कि अब वे
अपनी क़ब्र में मुझे क्षमा
कर देंगे। मैंने यह सब प्राप्त
करने के लिए कुछ नहीं
किया, उन्होंने ही मेरे लिए
यह सब किया था।

अन्त में उससे पूछा गया,
क्या तुम अपने पिता के
पदचिह्नों पर चलोगी
जैसा कि उन्होंने कहा था?

उसका सीधा उत्तर था,
मैं अब अपने पिता की
पूजा करती हूँ, उनका
बड़ा सा चित्र मेरे रहने के
कमरे में और घर के प्रवेश
द्वार पर लगा है। मेरे लिए
भगवान के बाद उनका
ही स्थान है।

क्या आप टॉम स्मिथ की
तरह हैं?
नाम कमाना सरल नहीं होता।
इसका पुरस्कार जल्दी नहीं
मिलता, पर देर सवेर मिलेगा
ही। और वह हमेशा बना रहेगा।

*ईमानदारी, अनुशासन,*
*आत्मनियंत्रण और ईश्वर से*
*डरना ही किसी व्यक्ति*
*को धनी बनाते हैं,*

*मोटा बैंक खाता नहीं।*

*अपने बच्चों के लिए एक*
*अच्छी विरासत छोड़कर*
*जाइए।*

समाज में बदलाव लाने के
लिए कृपया इस सत्य घटना
को अपने प्रिय व्यक्तियों
के साथ साझा कीजिए।

शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

हृदय परिवर्तन 

हृदय परिवर्तन 
~~~~~~~~~

♦ एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

♦ राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा - *"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई । एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए ।"*

♦ अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।

♦ जब यह बात गुरु जी ने सुनी । गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

♦ वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

♦ उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

♦ नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है ।"

♦ जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

♦ राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

♦ युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

♦ जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

♦ यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

♦ समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

♦ प्रशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

अपना-अपना स्वभाव

                *अपना-अपना स्वभाव*

एक बार एक भला आदमी नदी किनारे बैठा था। तभी उसने देखा एक बिच्छू पानी में गिर गया है। भले आदमी ने जल्दी से बिच्छू को हाथ में उठा लिया। बिच्छू ने उस भले आदमी को डंक मार दिया। बेचारे भले आदमी का हाथ काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया। भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए दुबारा उठा लिया।

बिच्छू ने दुबारा उस भले आदमी को डंक मार दिया। भले आदमी का हाथ दुबारा काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया। भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए एक बार फिर उठा लिया। वहाँ एक लड़का उस आदमी का बार-बार बिच्छू को पानी से निकालना और बार-बार बिच्छू का डंक मारना देख रहा था। उसने आदमी से कहा,

"आपको यह बिच्छू बार-बार डंक मार रहा है फिर भी आप उसे डूबने से क्यों बचाना चाहते हैं ??" भले आदमी ने कहा, "बात यह है बेटा कि बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और मेरा स्वभाव है बचाना। जब बिच्छू एक कीड़ा होते हुए भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव क्यों छोड़ूँ?" मनुष्य को कभी भी अपना अच्छा स्वभाव नहीं भूलना चाहिए |

➡ *शिक्षा* ~
*अपना-अपना स्वभाव नामक लघु प्रेरक कथा के माध्यम से हमें यह शिक्षा मिलती हैं कि मनुष्य को कभी भी अपने स्वभाव में परिवर्तन नहीं लाना चाहियें, जैसे हैं, वैसै ही बने रहना चाहिये |*

देने वाला कौन ?

*देने वाला कौन ?*
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आज हमने भंडारे में भोजन करवाया। आज हमने ये बांटा, आज हमने वो दान किया...
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हम अक्सर ऐसा कहते और मानते हैं। इसी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय कथा सुनिए...
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एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।
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एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।
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कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला।
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"
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समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा---
"ऋषिवर...!! अब जब भी आपकी प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"
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अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया।
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लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं।
उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।
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लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया।
यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।
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कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा---"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"
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साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया।
इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"
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कथासार- *किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो  ये मैंने दिया*!
दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया ।
वास्तविकता ये है कि वो उनका अपना है आप को सिर्फ परमात्मा ने निमित्त मात्र बनाया हैं। ताकी उन तक उनकी जरूरते पहुचाने के लिये। तो निमित्त होने का घमंड कैसा ??
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दान किए से जाए दुःख, दूर होएं सब पाप।।
नाथ आकर द्वार पे, दूर करें संताप।।

क्रोध मे विवेक न खोये

*आज का प्रेरक प्रसंग*

*क्रोध मे विवेक न खोये*

  *एक राजा घने जंगल में भटक गया, राजा गर्मी और प्यास से व्याकुल हो गया।*
         *इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिला।*
         *प्यास से गला सूखा जा रहा था।*
            *तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।*
           *वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा।*
       *जैसे तैसे बहुत समय लगने पर आखिर वह छोटा सा दोना भर ही गया।*
         *राजा ने प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास लाया तभी वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टें टें की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार कर सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।*
          *राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया।*
          *लेकिन, अब क्या हो सकता है । ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगा।*
        *काफी मशक्कत के बाद आखिर वह दोना फिर भर गया।*
           *राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने लगा तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिरा कर वापस सामने बैठ गया ।*
        *अब राजा "हताशा के वशीभूत हो क्रोधित" हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है ,मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा अब ये जब वापस आएगा तो इसे खत्म कर दूंगा।*
         *अब वह राजा अपने एक हाथ में दोना और दूसरे हाथ में चाबुक लेकर उस दोने को भरने लगा।*
         *काफी समय बाद उस दोने में फिर पानी भर गया।*
         *अब वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आया वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारा।और हो गया बेचारा तोता ढेर।लेकिन दोना भी नीचे गिर गया।* 
        *राजा ने सोचा इस तोते से तो पीछा छूट गया लेकिन ऐसे बून्द -बून्द से कब वापस दोना भरूँगा कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ।*
           *ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास गया, जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर राजा ने जो देखा तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक गई।*
           *उस डाल पर एक भयंकर अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।*
            *राजा के मन में पश्चॉत्ताप का समन्दर उठने लगता है, हे प्रभु ! मैने यह क्या कर दिया। जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया ।*
           *काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता,अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती।*
          *मित्रों,कभी कभी हमें लगता है, अमुक व्यक्ति हमें नाहक परेशान कर रहा है लेकिन हम उसकी भावना को समझे बिना क्रोध कर न केवल उसका बल्कि अपना भी नुकसान कर बैठते हैं।*
       *हैं ना☑☑☑☑*
         *इसीलिये कहते हैं कि,क्षमा औऱ दया धारण करने वाला सच्चा वीर होता है।*
           *क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पाश्चाताप से ही होता है।*

पगडंडी

             

                       *पगडंडी*

चौड़े रास्ते ने पास चलती पगडंडी से कहा - "अरी पगडंडी, मेरे रहते मुझे तुम्हारा अस्तित्व अनावश्यक-सा जान पड़ता है। व्यर्थ ही तुम मेरे आगे-पीछे, जाल-सा बिछाए चलती हो!"
पगडंडी ने भोलेपन से कहा, "नहीं जानती, तुम्हारे रहते लोग मुझ पर क्यों चलते हैं। एक के बाद एक दूसरा चला। और फिर, तीसरा, इस तरह मेरा जन्म ही अनायास और अकारण हुआ है!"

रास्ते ने दर्प के साथ कहा, "मुझे तो लोगों ने बड़े यत्न से बनाया है, मैं अनेक शहरों-गावों को जोड़ता चला जाता हूँ!" पगडंडी आश्चर्य से सुन रही थी। "सच?" उसने कहा, "मैं तो बहुत छोटी हूँ!" तभी एक विशाल वाहन, घरघराकर रास्ते पर रुक गया। सामने पड़ी छोटी पुलिया के एक तरफ़ बोर्ड लगा था, "बड़े वाहन सावधान! पुलिया कमज़ोर है।" वाहन, एक भरी हुई यात्री-गाड़ी थी

जो पुलिया पर से नहीं जा सकती थी। पूरी गाड़ी खाली करवाई गई। लोग पगडंडी पर चल पड़े। पगडंडी, पुलिया वाले सूखे नाले से जाकर, फिर उसी रास्ते से मिलती थी। उस पार, फिर यात्रियों को बैठाकर गाड़ी चल दी। रास्ते ने एक गहरा नि:श्वास छोड़ा! "री, पगडंडी! आज मैं समझा छोटी से छोटी वस्तु, वक्त आने पर मूल्यवान बन जाती है।"

➡ *शिक्षा* ~
*साथियों !! उपर्यक्त कथा हमें यह सीख देती हैं कि, हमें कभी भी किसी को छोटा नहीं समझना चाहिये l वक्त आने पर वह छोटी से छोटी वस्तु भी उपयोगी बन जाती हैं ll*

क्रोध

क्रोध
  सेठ राम दयाल अपनी दुकान पर बेठे थे दोपहर का समय था इसलिए कोई ग्राहक भी नहीं था।
       सेठ जी ने दुकान के कोने में एक दीवान रखा हुआ था।जब ग्राहक नहीं होते तो सेठ जी उसी दीवान पर थोडा आराम कर लेते थे।
       उस दिन भी सेठ जी ग्राहकों के अभाव में थोड़ा सुस्ताने लगे, इतने में ही किसी ने आकर सेठ जी को आवाज लगाई कुछ देने के लिए...
          सेठजी हैरान इस समय कौन आया है ?
          उठकर देखा तो एक संत महात्मा याचना कर रहे थे।
         सेठ जी थे बड़े ही दयालु! तुरंत उठे और दान देने के लिए चावल की बोरी में से एक कटोरा भर कर चावल निकाला और संत महात्मा के पास आकर उनको चावल दे दिया l
         संत महात्मा ने सेठ जी को बहुत आशीर्वाद और दुआएं दी l
      सेठजी ने हाथ
जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से कहा,हे महात्मा! आपको मेरा प्रणाम ।"
       "मैं आपसे अपने मन में उठी शंका का समाधान चाहता हूँ |"
       महात्मा जी ने भी प्यार से कहा,"कहो वत्स! क्या शंका है?'
        सेठ जी ने पूछा,"लोग आपस में लड़ते क्यों है?"
          महात्मा जी ने बहुत ही शांत स्वभाव और मधुर वाणी में कहा....
        "सेठ! मै तुम्हारे पास भिक्षा लेने के लिए आया हूँ तुम्हारे इस प्रकार के मूर्खता पूर्वक सवालो के जवाब देने नहीं आया हूँ |"
        महात्मा जी का यह जवाब  सुनकर सेठ जी मन में सोचने लगे, "यह कैसा घमंडी और असभ्य संत है ? ये तो बडे ही कृतघ्न है। एक तरफ मैंने इनको दान दिया और ये मुझे ही इस प्रकार की बात बोल रहे है इनकी इतनी हिम्मत।"
यह सोच कर सेठजी को बहुत ही गुस्सा आ गया और काफी देर तक उस संत को खरी खोटी सुनाते रहे।
        सेठ जी अपने मन की पूरी भड़ास निकाल कर ही कुछ शांत हुए।
          अब संत महात्मा जी बड़े ही शांत और स्थिर भाव से बोले,"जैसे ही मैंने कुछ बोला आपको गुस्सा आ गया और आप गुस्से से भर गए और लगे जोर जोर से बोलने और चिल्लाने।"
      *"वास्तव में केवल गुस्सा ही सभी झगडे का मूल होता है यदि हम अपने गुस्से पर काबू रख सके या सीख जाये तो दुनिया  में कभी झगड़े होंगे ही नहीं!!!"*
       आईये हम और आप इस कहानी से कुछ सीख लें और करें कोशिश अपने क्रोध पर नियन्त्रण करने की।