सोमवार, 29 जून 2015

Swami vivekanand and maya

मुंशीं फैज अली ने स्वामी विवेकानन्द से पूछा :
स्वामी जी हमें बताया गया है कि अल्लाह एक ही है।
यदि वह एक ही है, तो फिर संसार उसी ने बनाया होगा ?

स्वामी जी बोले, "सत्य है।".

मुशी जी बोले ,"तो फिर इतने प्रकार के मनुष्य क्यों बनाये।
जैसे कि हिन्दु, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई और सभी को अलग-अलग धार्मिक ग्रंथ भी दिये।
एक ही जैसे इंसान बनाने में उसे यानि की अल्लाह को क्या एतराज था।
सब एक होते तो न कोई लङाई और न कोई झगङा होता।
स्वामी हँसते हुए बोले, "मुंशी जी वो सृष्टी कैसी होती जिसमें एक ही प्रकार के फूल होते।
केवल गुलाब होता, कमल या रंजनिगंधा या गेंदा जैसे फूल न होते!".
फैज अली ने कहा सच कहा आपने यदि एक ही दाल होती तो खाने का स्वाद भी एक ही होता।
दुनिया तो बङी फीकी सी हो जाती!
स्वामी जी ने कहा, मुंशीजी! इसीलिये तो ऊपर वाले ने अनेक प्रकार के जीव-जंतु और इंसान बनाए ताकि हम पिंजरे का भेद भूलकर जीव की एकता को पहचाने।

मुंशी जी ने पूछा, इतने मजहब क्यों ?
स्वामी जी ने कहा, " मजहब तो मनुष्य ने बनाए हैं,
प्रभु ने तो केवल धर्म बनाया है।
मुंशी जी ने कहा कि, "ऐसा क्यों है कि एक मजहब में कहा गया है कि गाय और सुअर खाओ और दूसरे में कहा गया है कि गाय मत खाओ, सुअर खाओ एवं तीसरे में कहा गया कि गाय खाओ सुअर न खाओ;

इतना ही नही कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि मना करने पर जो इसे खाये उसे अपना दुश्मन समझो।"

स्वामी जी जोर से हँसते हुए मुंशी जी से पूछे कि, "क्या ये सब प्रभु ने कहा है ?"

मुंशी जी बोले नही, "मजहबी लोग यही कहते हैं।"

स्वामी जी बोले, "मित्र! किसी भी देश या प्रदेश का भोजन वहाँ की जलवायु की देन है।
सागरतट पर बसने वाला व्यक्ति वहाँ खेती नही कर सकता, वह सागर से पकङ कर मछलियां ही खायेगा।

उपजाऊ भूमि के प्रदेश में खेती हो सकती है।
वहाँ अन्न फल एवं शाक-भाजी उगाई जा सकती है।
उन्हे अपनी खेती के लिए गाय और बैल बहुत उपयोगी लगे।
उन्होने गाय को अपनी माता माना, धरती को अपनी माता माना और नदी को माता माना ।
क्योंकि ये सब उनका पालन पोषण माता के समान ही करती हैं।"

अब जहाँ मरुभूमि है वहाँ खेती कैसे होगी?
खेती नही होगी तो वे गाय और बैल का क्या करेंगे? अन्न है नही तो खाद्य के रूप में पशु को ही खायेंगे।
तिब्बत में कोई शाकाहारी कैसे हो सकता है?
वही स्थिति अरब देशों में है। जापान में भी इतनी भूमि नही है कि कृषि पर निर्भर रह सकें।

स्वामी जी फैज अलि की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, " हिन्दु कहते हैं कि मंदिर में जाने से पहले या पूजा करने से पहले स्नान करो।
मुसलमान नमाज पढने से पहले वाजु करते हैं।
क्या अल्लाह ने कहा है कि नहाओ मत, केवल लोटे भर पानी से हांथ-मुँह धो लो?

फैज अलि बोला, क्या पता कहा ही होगा!
स्वामी जी ने आगे कहा,नहीं, अल्लहा ने नही कहा!
अरब देश में इतना पानी कहाँ है कि वहाँ पाँच समय नहाया जाए।
जहाँ पीने के लिए पानी बङी मुश्किल से मिलता हो वहाँ कोई पाँच समय कैसे नहा सकता है।
यह तो भारत में ही संभव है, जहाँ नदियां बहती हैं,
झरने बहते हैं, कुएँ जल देते हैं।
तिब्बत में यदि पानीहो तो वहाँ पाँच बार व्यक्ति यदि नहाता है तो ठंड के कारण ही मर जायेगा।
यह सब प्रकृति ने सबको समझाने के लिये किया है।

स्वामी विवेकानंद जी ने आगे समझाते हुए कहा कि," मनुष्य की मृत्यु होती है।
उसके शव का अंतिम संस्कार करना होता है। अरब देशों में वृक्ष नही होते थे, केवल रेत थी। अतः वहाँ मृतिका समाधी का प्रचलन हुआ, जिसे आप दफनाना कहते हैं।

भारत में वृक्ष बहुत बङी संख्या में थे, लकडी.पर्याप्त उपलब्ध थी अतः भारत में अग्नि संस्कार का प्रचलन हुआ।

जिस देश में जो सुविधा थी वहाँ उसी का प्रचलन बढा।
वहाँ जो मजहब पनपा उसने उसे अपने दर्शन से जोङ लिया।

फैज अलि विस्मित होते हुए बोला!
स्वामी जी इसका मतलब है कि हमें शव का अंतिम संस्कार प्रदेश और देश के अनुसार करना चाहिये। मजहब के अनुसार नही।

"स्वामी जी बोले, "हाँ! यही उचित है।"
किन्तु अब लोगों ने उसके साथ धर्म को जोङ दिया। मुसलमान ये मानता है कि उसका ये शरीर कयामत के दिन उठेगा इसलिए वह शरीर को जलाकर समाप्त नही करना चाहता।

हिन्दू मानता है कि उसकी आत्मा फिर से नया शरीर धारण करेगी इसलिए उसे मृत शरीर से एक क्षंण भी मोह नही होता।

फैज अलि ने पूछा कि, "एक मुसलमान के शव को जलाया जाए और एक हिन्दु के शव को दफनाया जाए तो क्या प्रभु नाराज नही होंगे?

स्वामी जी ने कहा," प्रकृति के नियम ही प्रभु का आदेश हैं।
वैसे प्रभु कभी रुष्ट नही होते वे प्रेमसागर हैं, करुणा सागर है।
फैज अलि ने पूछा तो हमें उनसे डरना नही चाहिए?

स्वामी जी बोले, "नही! हमें तो ईश्वर से प्रेम करना चाहिए वो तो पिता समान है, दया का सागर है फिर उससे भय कैसा।
डरते तो उससे हैं हम जिससे हम प्यार नही करते।

फैज अलि ने हाँथ जोङकर स्वामी विवेकानंद जी से पूछा, "तो फिर मजहबों के कठघरों से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है?

"स्वामी जी ने फैज अलि की तरफ देखते हुए मुस्कराकर कहा,
"क्या तुम सचमुच कठघरों से मुक्त होना चाहते हो?"
फैज अलि ने स्वीकार करने की स्थिति में अपना सर हिला दिया।

स्वामी जी ने आगे समझाते हुए कहा, "फल की दुकान पर जाओ, तुम देखोगे वहाँ आम, नारियल, केले, संतरे,अंगूर आदि अनेक फल बिकते हैं; किंतु वो दुकान तो फल की दुकान ही कहलाती है।

वहाँ अलग-अलग नाम से फल ही रखे होते हैं।

"फैज अलि ने हाँ में सर हिला दिया।
स्वामी विवेकानंद जी ने आगे कहा कि, "अंश से अंशी की ओर चलो।
तुम पाओगे कि सब उसी प्रभु के रूप हैं।"

फैज अलि अविरल आश्चर्य से स्वामी विवेकानंद जी को देखते रहे और बोले "स्वामी जी मनुष्य ये सब क्यों नही समझता?" स्वामी विवेकानंद जी ने शांत स्वर में कहा, मित्र! प्रभु की माया को कोई नही समझता।
मेरा मानना तो यही है कि, "सभी धर्मों का गंतव्य स्थान एक है।
जिस प्रकार विभिन्न मार्गो से बहती हुई नदियां समुंद्र में जाकर गिरती हैं, उसी प्रकार सब मतमतान्तर परमात्मा की ओर ले जाते हैं।
मानव धर्म एक है, मानव जाति एक है।"...

शुक्रवार, 26 जून 2015

उल्लू और हंस

एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए, उजड़े वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये!

हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं ??

यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा !

भटकते भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज की रात बीता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे !

रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे, उस पर एक उल्लू बैठा था।

वह जोर से चिल्लाने लगा।

हंसिनी ने हंस से कहा- अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते।

ये उल्लू चिल्ला रहा है।

हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ??

ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही।

पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों की बातें सुन रहा था।

सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई, मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ करदो।

हंस ने कहा- कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद!

यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा

पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो।

हंस चौंका- उसने कहा, आपकी पत्नी ??

अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है,मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है!

उल्लू ने कहा- खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है।

दोनों के बीच विवाद बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग एकत्र हो गये।

कई गावों की जनता बैठी। पंचायत बुलाई गयी।

पंचलोग भी आ गये!

बोले- भाई किस बात का विवाद है ??

लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है!

लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे।

हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है।

इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना चाहिए!

फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों की जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की ही पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है!

यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया।

उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली!

रोते- चीखते जब वह आगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई - ऐ मित्र हंस, रुको!

हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ??

पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ?

उल्लू ने कहा- नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी!

लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है!

मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है।

यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं!

शायद 65 साल की आजादी के बाद भी हमारे देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि हमने उम्मीदवार की योग्यता न देखते हुए, हमेशा ये हमारी जाति का है. ये हमारी पार्टी का है के आधार पर अपना फैसला उल्लुओं के ही पक्ष में सुनाया है, देश क़ी बदहाली और दुर्दशा के लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैँ!

अतीत सदा याद रहता है

अतीत सदा याद रहता है

बिल गेटस सुबह के नाश्ते के लिए एक रेस्टोरेंट में पहुंचे।
जब उन्होंने नाश्ता समाप्त कर लिया और वेटर बिल ले आया, तब उन्होंने भुगतान के अलावा पांच डालर बतौर टिप टृे में रख दिए।

वेटर ने टिप तो ले लिया पर उसके मुंह पर आया हुआ आश्चर्य का भाव गेटस की दृष्टि से ओझल न रह सका।

उसी को भांपते हुए उनहोंने पूछा–क्या कोई खास बात है?

वेटर ने कहा– जी, अभी दो दिन पहले की बात है इसी मेज पर आपकी बेटी ने लंच किया और मुझे बतौर टिप पांच सौ डालर दिये थे और आप उनके पिता दुनिया के सबसे अमीर आदमी होने के बावजूद मुझे केवल पांच डालर दिये हैं।

मुस्कुराते हुए गेटस बोले– हां, क्योंकि वह दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति की बेटी है और मैं एक लकडहारे का बेटा हुं।
मुझे अपना अतीत सदा याद रहता है,
क्योंकि वह मेरा सर्वोत्तम मार्गदर्शक है।
(एक मैगजीन से)

बुधवार, 24 जून 2015

Sir Alexander Fleming.

This is a story of a poor Scottish farmer whose name was Fleming. One day, while trying to make a  living for his family, he heard a cry for help coming from a nearby dog. He dropped his tools and ran to the dog. There, mired to his waist in black muck, was a terrified boy, screaming and struggling to free himself. Farmer Fleming saved the boy from what could have been a slow and terrifying death.
The next day, a fancy carriage pulled up to the Scotsman’s sparse surroundings. An elegantly dressed nobleman stepped out and introduced himself as the father of the boy Farmer Fleming had saved. “I want to repay you, “said the nobleman. “I’ll make you a deal. Let me take your son and give him a good education. If he’s anything like his father, he’ll grow to a man you can be proud of you.” And that he did. In time, Farmer Fleming’s son graduated from St. Mary’s Hospital Medical School in London, and went on to become known throughout the world as the noted Sir Alexander Fleming, the discoverer of Penicillin.
Years afterward, the nobleman’s son was stricken with pneumonia. What saved him? Penicillin. This is not the end. The nobleman’s son also made a great contribution to society. For the nobleman was none other than Lord Randolph Churchill. and his son’s name was Winston Churchill. Let us use all our talent, competence and energy for creating peace and happiness. One good deed of farmer Fleming lead to the making of Sir Alexander Fleming. So, why not do good and be good…

मंगलवार, 23 जून 2015

आपसी विश्वास

=आपसी विश्वास=
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संत कबीर रोज सत्संग किया करते थे। दूर-दूर से लोग उनकी बात सुनने आते थे।

एक दिन सत्संग खत्म होने पर भी एक आदमी बैठा ही रहा।

कबीर ने इसका कारण पूछा तो वह बोला, ‘मुझे आपसे कुछ पूछना है।

मैं गृहस्थ हूं, घर में सभी लोगों से मेरा झगड़ा होता रहता है। मैं जानना चाहता हूं कि मेरे यहां गृह क्लेश क्यों होता है और वह कैसे दूर हो सकता है?’

कबीर थोड़ी देर चुप रहे, फिर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, ‘लालटेन जलाकर लाओ’।

कबीर की पत्नी लालटेन जलाकर ले आई।

वह आदमी भौंचक देखता रहा। सोचने लगा इतनी दोपहर में कबीर ने लालटेन क्यों मंगाई।

थोड़ी देर बाद कबीर बोले, ‘कुछ मीठा दे जाना।’

इस बार उनकी पत्नी मीठे के बजाय नमकीन देकर चली गई।
उस आदमी ने सोचा कि यह तो शायद पागलों का घर है। मीठा के बदले नमकीन, दिन में लालटेन।

वह बोला, ‘कबीर जी मैं चलता हूं।’

कबीर ने पूछा, ‘आपको अपनी समस्या का समाधान मिला या अभी कुछ संशय बाकी है?’

वह व्यक्ति बोला, ‘मेरी समझ में कुछ नहीं आया।’

कबीर ने कहा, ‘जैसे मैंने लालटेन मंगवाई तो मेरी घरवाली कह सकती थी कि तुम क्या सठिया गए हो।

इतनी दोपहर में लालटेन की क्या जरूरत। लेकिन नहीं, उसने सोचा कि जरूर किसी काम के लिए लालटेन मंगवाई होगी।

मीठा मंगवाया तो नमकीन देकर चली गई। हो सकता है घर में कोई मीठी वस्तु न हो। यह सोचकर मैं चुप रहा।

इसमें तकरार क्या?

आपसी विश्वास बढ़ाने और तकरार में न फंसने से विषम परिस्थिति अपने आप दूर हो गई।’

उस आदमी को हैरानी हुई। वह समझ गया कि कबीर ने यह सब उसे बताने के लिए किया था।

कबीर ने फिर कहा,’ गृहस्थी में आपसी विश्वास से ही तालमेल बनता है।

आदमी से गलती हो तो औरत संभाल ले और औरत से कोई त्रुटि हो जाए तो पति उसे नजरअंदाज कर दे।

यही गृहस्थी का मूल मंत्र है।’

All married must read it.

शनिवार, 20 जून 2015

टेढ़े मेढ़े नटखट कान्हा

टेढ़े मेढ़े नटखट कान्हा की बहूत ही सुंदर कथा ~

एक बार की बात है बॄन्दावन का एक साधु अयोध्या की गलियों मे राधेकृष्ण राधेकृष्ण जप रहा था तो एक अयोध्या का साधु बोला -अरे भाई क्या राधेकृष्ण लगा रखा है, अरे नाम ही जपना है तो सीताराम, सीताराम जपो ना। क्या उस टेढ़े मेढ़े का नाम लेते हो?
यह सुन कर बृंदावन वाला साधु भड़क गया और बोला,भाई जुबान संभाल कर बात कीजिए,ये जुबान पान भी खिलाती है और लात भी खिलाती है,आपने मेरे इष्टदेव को टेढ़ा कैसे बोला?
अयोध्या का साधु बोला :-भाई ये बिल्कुल सत्य है कि सच्चाई बहूत कड़वी होती है,लोग सहन नही कर पाते हैं,देखिए ना सच सुन कर आप कितने बौखला गये?लेकिन,
सच्चाई छुप नही सकती बनावट के उसूलों से ,
कि खुश्बू आ नही सकती कभी कागज के फूलों से।
भाई हम यह साबित कर सकते हैं कि आपके कृष्ण तो टेढ़े मेढ़े हैं ही, उनका कुछ भी सीधा नही है। उसका नाम टेढ़ा,उसका धाम टेढ़ा,उसका काम टेढ़ा,और वो खुद भी टेढ़ा है,और मेरे राम को देखो कितने सीधे और कितने सरल हैं?
बृंदावन वाला साधु -अरे..अरे,ये आपने क्या कह दिया! नाम टेढ़ा,धाम टेढ़ा,काम टेढ़ा।?
अयोध्या वाला साधु :- बिल्कुल, आप खुद ये काग़ज़ और कलम लो और कृष्ण लिख कर देख लो………अब बताओ ये नाम टेढ़ा है कि नही?
बृंदावन वाला साधु:- सो तो है!
अयोध्या वाला साधु :- ठीक इसी तरह उसका धाम भी टेढ़ा है विश्वास नहीं है तो बृंदावन लिख कर देख लो।
बृंदावन का साधु बोला- चलो हम मानते हैं कि नाम और धाम टेढ़ा है लेकिन उनका काम टेढ़ा है और वो खुद भी टेढ़े है ये आपने कैसे कहा?
अयोध्या का साधु बोला-प्यारे……….ये भी बताना पड़ेगा, अरे भाई जमुना मे नहाती गोपियों के वस्त्र चुराना,रास रचाना, माखन चुराना ये सब कोई शरीफों का सीधा सादा काम है क्या,और आज तक कोई हमे ये बता दें कि किसी ने भी उनको सीधे खड़े देखा है क्या?
फिर क्या था, बृंदावन के साधु को अपने कृष्ण से बहुत नाराज़गी हुई।वो सीधे बृंदावन पहुँचा और बाँकेबिहारी से लड़ाई तान दी। बोला खूब ऊल्लू बनाया मुझे इतने दिनों तक, यह लो अपनी लकुट कमरिया, यह लो अपनी सोटी। अब हम तो चले अयोध्या सीधे सादे राम की शरण में।
कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-लगता है तुम्हें किसी ने भड़का दिया है, ठीक है जाना चाहते हो तो जाओ पर यह बता तो दो कि हम टेढ़े और राम सीधे कैसे हुए,और कृष्ण कुँए पर नहाने के लिए चल पड़े ?
बृंदावन वाला साधु बोला:-अजी आपका नाम टेढ़ा है आपका धाम टेढ़ा है और आपका तो सारा
काम भी टेढ़ा है आप खुद भी तो टेढ़े हो कभी आपको किसी ने सावधान में खड़े नही देखा होगा।
कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए कुँए से पानी निकाल रहे थे कि अचानक पानी निकालने वाली बाल्टी कुएँ में गिर जाती है, कृष्ण अपने नाराज भक्त को आश्रम से एक सरिया लाने को कहते है, साधु सरिया लाकर देता है, और कृष्ण उस सरिए से बाल्टी को निकालने की कोशिश करते हैं।
यह देखकर बृंदावन का साधु बोला- आज मुझे मालूम हुआ कि आप को अक्ल भी कोई खास नही है।अजी सीधे सरिए से बाल्टी कैसे निकलेगी, इतनी देर से परेशान हो रहे हो,सरिए को थोड़ा टेढ़ा कर
लो,फिर देखो बाल्टी कैसे बाहर आ जाती है?
कृष्ण अपने स्वाभाविक रूप से मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले :- जरा सोचो जब सीधापन इस छोटे से कुएँ से एक छोटी सी बाल्टी को नही निकाल सकता, तो तुम्हें इतने बड़े भवसागर से कैसे निकाल पायेगा। अरे आजकल के इंसानो तुम सब तो इतने गहरे पाप के सागर मेँ गिर चुके हो कि इससे तुम्हें निकाल पाना मेरे जैसे टेढ़े का ही काम रह गया है
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बोलिए बाँके बिहारी लाल की जय

मंगलवार, 16 जून 2015

बकरा और घास

किसी राजा के पास एक बकरा था ।
एक बार उसने एलान किया की जो कोई
इस बकरे को जंगल में चराकर तृप्त करेगा मैं उसे आधा राज्य दे दूंगा।
किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं
इसकी परीक्षा मैं खुद करूँगा।
इस एलान को सुनकर एक मनुष्य राजा के पास
आकर कहने लगा कि बकरा चराना कोई बड़ी बात नहीं है।
वह बकरे को लेकर जंगल में गया और सारे दिन
उसे घास चराता रहा,, शाम तक उसने बकरे को खूब घास खिलाई
और फिर सोचा की सारे दिन इसने इतनी घास खाई है
अब तो इसका पेट भर गया होगा तो अब इसको राजा के पास ले चलूँ,,
बकरे के साथ वह राजा के पास गया,,
राजा ने थोड़ी सी हरी घास बकरे के सामने रखी तो बकरा उसे खाने लगा।
इस पर राजा ने उस मनुष्य से कहा की तूने
उसे पेट भर खिलाया ही नहीं वर्ना वह घास क्यों खाने लगता।
बहुत जनो ने बकरे का पेट भरने का प्रयत्न किया
किंतु ज्यों ही दरबार में उसके सामने घास डाली जाती तो
वह फिर से खाने लगता।
एक विद्वान् ब्राह्मण ने सोचा इस एलान का कोई तो रहस्य है, तत्व है,,
मैं युक्ति से काम लूँगा,, वह बकरे को चराने के लिए ले गया।
जब भी बकरा घास खाने के लिए जाता तो वह उसे लकड़ी से मारता,,
सारे दिन में ऐसा कई बार हुआ,, अंत में बकरे ने सोचा की यदि
मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी।
शाम को वह ब्राह्मण बकरे को लेकर राजदरबार में लौटा,,
बकरे को तो उसने बिलकुल घास नहीं खिलाई थी
फिर भी राजा से कहा मैंने इसको भरपेट खिलाया है।
अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा,,
लो कर लीजिये परीक्षा....
राजा ने घास डाली लेकिन उस बकरे ने उसे खाया तो क्या
देखा और सूंघा तक नहीं....
बकरे के मन में यह बात बैठ गयी थी कि अगर
घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी....अत: उसने घास नहीं खाई....

मित्रों " यह बकरा हमारा मन ही है "

बकरे को घास चराने ले जाने वाला ब्राह्मण " आत्मा" है।

राजा "परमात्मा" है।

मन को मारो नहीं,,, मन पर अंकुश रखो....
मन सुधरेगा तो जीवन भी सुधरेगा।

अतः मन को विवेक रूपी लकड़ी से रोज पीटो..

प्रेम, धन और सफलता

एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई
और उसने तीन संतों को अपने घर के सामने
देखा। वह उन्हें जानती नहीं थी।

औरत ने कहा –
“कृपया भीतर आइये और भोजन करिए।”

संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?”

औरत – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।”

संत –“हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर
          हों।”
शाम को उस औरत का पति घर आया और
औरत ने उसे यह सब बताया।

पति – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर
आ गया हूँ और उनको आदर सहित बुलाओ।”

औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के
लिए कहा।
संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ
नहीं जाते।”

“पर क्यों?” – औरत ने पूछा।

उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है” 
फ़िर दूसरे संतों की ओर इशारा कर के कहा –
“इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं।
हममें से कोई एक ही भीतर आ सकता है।

आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर
लें कि भीतर किसे निमंत्रित करना है।”

औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब
बताया। उसका पति बहुत प्रसन्न हो गया और

बोला –“यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित
करना चाहिए। हमारा घर खुशियों से भर जाएगा।”

पत्नी – “मुझे लगता है कि हमें सफलता को
             आमंत्रित करना चाहिए।”

उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी।
वह उनके पास आई और बोली –
“मुझे लगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना
चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।”

“तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम
को ही बुलाना चाहिए” – उसके माता-पिता ने
कहा।
औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा –
“आप में से जिनका नाम प्रेम है वे कृपया घर में
प्रवेश कर भोजन गृहण करें।”

प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके
पीछे चलने लगे।

औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा – “मैंने
तो सिर्फ़ प्रेम को आमंत्रित किया था। आप लोग
भीतर क्यों जा रहे हैं?”

उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और
सफलता में से किसी एक को आमंत्रित किया होता
तो केवल वही भीतर जाता।
आपने प्रेम को आमंत्रित किया है।

प्रेम कभी अकेला नहीं जाता।
प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता याद
उसके पीछे जाते हैं।

गुरुवार, 4 जून 2015

अहंकार

श्रीकृष्ण द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे,
निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे।
तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा  था।
बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा कि
हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था,
सीता आपकी पत्नी थीं।
क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?
द्वारकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का अभिमान हो गया है।
तभी गरुड़ ने कहा कि भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है।

इधर सुदर्शन चक्र से भी रहा नहीं गया और वह भी कह उठे कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है।
क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है?

भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार  हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है।
ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड़ से कहा कि हे गरुड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
गरुड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।
इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि  देवी आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।
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मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि
तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो। और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे।
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भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए।
गरुड़ ने हनुमान के पास पहुंच कर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं।
आप मेरे साथ चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।
हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड़ से कहा, आप चलिए, मैं आता हूं। गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा।
खैर मैं भगवान के पास चलता हूं।
यह सोचकर गरुड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े।
पर यह क्या, महल में पहुंचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं।
गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया।
����तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा कि पवन पुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए?
क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?
हनुमान ने  हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया।
हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था, इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया।
मुझे क्षमा करें।
भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।

अब रानी सत्यभामा के अहंकार भंग होने की बारी थी।
उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था।
रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था।
वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंख से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए।
अद्भुत लीला है प्रभु की। अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त द्वारा ही दूर किया।
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