*वाणी ऐसी बोलिये।*
*मन का आपा खोय।।*
*औरन को शीतल लगे।*
*आपहु शीतल होय।।*
एक राजा वन-विहार को निकले। घूमते घूमते सूर्य देवता सिर पर आ गए थे वह भी अपनी सम्पूर्ण प्रचंडता के साथ।रास्ते में साथ लाया पानी भी खत्म हो गया था।राजा के साथ साथ सिपाहियों को भी प्यास के मारे बुरा हाल था।
राजा ने नजर दौड़ाई तो दूर एक झोपड़ी दिखाई दी।
सिपाही को भेजा उस झोंपड़ी से जल लाने के लिए।
जैसे-तैसे सिपाही झोंपड़ी तक पहुँचा,देखा वंहाँ केवल एक ही आदमी था वह भी अंधा।
सिपाही थका हुआ तो था ही,रौब से बोला,"ऐ अन्धे एक लौटा पानी दे।
अन्धा भी कम अकड़ू नहीं था,उसने तुरन्त कहा,
"चल तेरे जैसे सिपाहियों से मैं नहीं डरता। नहीं दूँगा पानी तुझे।"
आखिर सिपाही निराश लौट पड़ा।
सिपाही ने राजा को बताया कि झोंपड़ी में एकमात्र अँधा वृद्ध है जो पानी नहीं दे रहा।
अब राजा ने सेनापति को पानी लाने भेज दिया।
सेनापति ने समीप जाकर कहा, "ए अन्धे! पैसा मिलेगा, पानी दे।
अन्धा फिर अकड़ पड़ा। उसने सोचा, पहले वाले का यह सरदार मालूम पड़ता है। फिर भी चुपड़ी बातें बना कर दबाव डालता है। बोला,"जा-जा सरदार! यहाँ से पानी नहीं मिलेगा।"
सेनापति को भी खाली हाथ लौटता देख राजा स्वयं चल पड़े।
समीप पहुँचकर वृद्ध जन को सर्वप्रथम नमस्कार किया और कहा,"प्यास से गला सूख रहा है।एक लोटा जल दे सकें तो बड़ी कृपा होगी।"
अंधे ने सत्कारपूर्वक उन्हें पास बिठाया और कहा,"आपश्री जैसे श्रेष्ठ राजन के लिए जल तो क्या मेरा शरीर भी स्वागत में हाजिर है। कोई और भी सेवा हो तो बतायें।"
राजा ने शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई नम्र वाणी में पूछा,"आपको तो दिखाई ही पड़ नहीं रहा है, फिर जल माँगने वालों को सिपाही, सरदार और राजा के रूप में कैसे पहचान पाये?"
अन्धे ने कहा,"हे राजन! वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के वास्तविक स्तर का पता चल जाता है।”
राजा ने अपने सिपाही और सेनापति द्वारा किये गए व्यवहार के लिए माफी माँगी तो उस अन्धे वृद्ध ने भी राजा से कह दिया,"हे राजन!माफी मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें कृपया अपने सिपाही को भेज दें ताकि आपके सभी साथियों की प्यास बुझाने का सौभाग्य मुझे मिल सके।"
उस समय तो राजा ने अपने सिपाही को पानी लेने भेज दिया ताकि अपने सभी सेवकों की प्यास बुझाई जा सके।
महल पँहुचते ही राजा ने अपने उस सिपाही और सेनापति को बर्खास्त कर दिया,और दूसरे सिपाही को भेजकर उस अन्धे वृद्ध को सम्मान महल में बुलाकर राज अतिथि घोषित कर उनके महल के ही एक कक्ष में न केवल रहने की व्यवस्था की बल्कि उनकी सेवा सुश्रुषा के लिए दास दासियों को भी नियुक्त कर दिया।
हम जानते हैं कि इस सारे चमत्कार का कारण केवल वाणी ही थी।
*वाणी उस तीर की तरह हाेती है,जाे कमान(धनुष) से निकलने के बाद वापस नहीं आती। अतः हम जब भी कुछ बाेलें बहुत सोच-समझ कर बाेलें, वाणी में ऐसी मिठास हाे कि,सुनने वाला गदगद़ हो जाये।*
*हम अपनी वाणी से किसी काे भी दुःख न पहुँचाएँ,इसी कामना के साथ..........*
शनिवार, 30 सितंबर 2017
वाणी ऐसी बोलिये। मन का आपा खोय।।
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