शनिवार, 30 मई 2015

सौ  ऊंट

एक आदमी  राजस्थान  के  किसी  शहर  में  रहता  था . वह  ग्रेजुएट  था  और  एक  प्राइवेट  कंपनी  में  जॉब  करता  था .
पर वो  अपनी  ज़िन्दगी  से  खुश  नहीं  था , हर  समय  वो  किसी  न  किसी  समस्या  से  परेशान  रहता  था  और  उसी  के बारे  में  सोचता  रहता  था .

एक बार  शहर  से  कुछ  दूरी  पर  एक  एक महात्मा  का  काफिला  रुका  हुआ  था . शहर  में  चारों  और  उन्ही की चर्चा  थी ,
बहुत  से  लोग  अपनी  समस्याएं  लेकर  उनके  पास  पहुँचने  लगे ,
उस आदमी  को  भी  इस  बारे  में  पता चला, और  उसने  भी  महात्मा  के  दर्शन  करने  का  निश्चय  किया .

छुट्टी के दिन  सुबह -सुबह ही उनके  काफिले  तक  पहुंचा .
वहां  सैकड़ों  लोगों  की  भीड़  जुटी  हुई  थी , बहुत इंतज़ार  के  बाद उसका  का  नंबर  आया .

वह  बाबा  से  बोला  ,” बाबा , मैं  अपने  जीवन  से  बहुत  दुखी  हूँ ,
हर  समय  समस्याएं  मुझे  घेरी  रहती  हैं , कभी ऑफिस  की  टेंशन  रहती  है ,
तो  कभी  घर  पर  अनबन  हो  जाती  है , और  कभी  अपने  सेहत  को  लेकर  परेशान रहता  हूँ ….
बाबा  कोई  ऐसा  उपाय  बताइये  कि  मेरे  जीवन  से  सभी  समस्याएं  ख़त्म  हो  जाएं  और  मैं  चैन  से  जी सकूँ ?

बाबा  मुस्कुराये  और  बोले , “ पुत्र  , आज  बहुत देर  हो  गयी  है  मैं  तुम्हारे  प्रश्न  का  उत्तर  कल  सुबह दूंगा …
लेकिन क्या  तुम  मेरा  एक  छोटा  सा  काम  करोगे …?”

“ज़रूर  करूँगा ..”, वो आदमी उत्साह  के  साथ  बोला .

“देखो  बेटा , हमारे  काफिले  में  सौ ऊंट  हैं  ,
और  इनकी  देखभाल  करने  वाला  आज  बीमार  पड़  गया  है , मैं  चाहता हूँ  कि  आज  रात  तुम  इनका  खयाल  रखो …
और  जब  सौ  के  सौ  ऊंट   बैठ  जाएं  तो  तुम   भी  सो  जाना …”,
ऐसा कहते  हुए   महात्मा  अपने  तम्बू  में  चले  गए ..

अगली  सुबह  महात्मा उस आदमी  से  मिले  और  पुछा , “ कहो  बेटा , नींद  अच्छी  आई .”

“कहाँ  बाबा , मैं  तो  एक  पल  भी  नहीं  सो  पाया , मैंने  बहुत  कोशिश  की  पर  मैं  सभी  ऊंटों  को  नहीं  बैठा  पाया ,
कोई  न  कोई  ऊंट खड़ा  हो  ही  जाता …!!!”,  वो  दुखी  होते  हुए  बोला .”

“ मैं  जानता  था  यही  होगा …
आज  तक  कभी  ऐसा  नहीं  हुआ  है  कि  ये  सारे  ऊंट  एक  साथ  बैठ  जाएं …!!!”,
“ बाबा  बोले .

आदमी नाराज़गी  के  स्वर  में  बोला , “ तो  फिर  आपने  मुझे  ऐसा  करने  को  क्यों  कहा ”

बाबा बोले  , “ बेटा , कल  रात  तुमने  क्या  अनुभव  किया ,
यही  ना  कि  चाहे  कितनी  भी  कोशिश  कर  लो  सारे  ऊंट एक  साथ  नहीं  बैठ  सकते …
तुम  एक  को  बैठाओगे  तो  कहीं  और  कोई  दूसरा  खड़ा  हो  जाएगा 

इसी  तरह  तुम एक  समस्या  का  समाधान  करोगे  तो  किसी  कारणवश  दूसरी खड़ी हो  जाएगी ..

पुत्र  जब  तक  जीवन  है  ये समस्याएं  तो  बनी  ही  रहती  हैं … कभी  कम  तो  कभी  ज्यादा ….”

“तो  हमें  क्या  करना चाहिए  ?” , आदमी  ने  जिज्ञासावश  पुछा .

“इन  समस्याओं  के  बावजूद  जीवन  का  आनंद  लेना  सीखो …
कल  रात  क्या  हुआ   , कई  ऊंट   रात होते -होते  खुद ही  बैठ  गए  ,
कई  तुमने  अपने  प्रयास  से  बैठा  दिए , पर  बहुत  से  ऊंट तुम्हारे  प्रयास  के  बाद  भी  नहीं बैठे …
और जब  बाद  में  तुमने  देखा  तो  पाया  कि तुम्हारे  जाने  के  बाद उनमे से कुछ खुद ही  बैठ  गए ….
कुछ  समझे ….

"समस्याएं  भी  ऐसी  ही  होती  हैं , कुछ  तो  अपने आप ही ख़त्म  हो  जाती  हैं ,
  कुछ  को  तुम  अपने  प्रयास  से  हल  कर लेते  हो …
और  कुछ  तुम्हारे  बहुत  कोशिश  करने  पर   भी  हल  नहीं  होतीं ,
ऐसी  समस्याओं  को   समय  पर  छोड़  दो …

उचित  समय  पर  वे खुद  ही  ख़त्म  हो  जाती  हैं ….
और  जैसा  कि मैंने  पहले  कहा … जीवन  है
  तो  कुछ समस्याएं रहेंगी  ही  रहेंगी ….
पर  इसका  ये  मतलब  नहीं  की  तुम  दिन  रात  उन्ही  के  बारे  में  सोचते  रहो …

ऐसा होता तो ऊंटों की देखभाल करने वाला कभी सो नहीं पाता….
समस्याओं को  एक  तरफ  रखो  और  जीवन  का  आनंद  लो…

चैन की नींद सो …

जब  उनका  समय  आएगा  वो  खुद  ही  हल  हो  जाएँगी"...

 
         बिंदास मुस्कुराओ क्या ग़म हे,..

         ज़िन्दगी में टेंशन किसको कम हे..

          अच्छा या बुरा तो केवल भ्रम हे..

   जिन्दगी का नाम ही कभी ख़ुशी कभी गम हैं ।

   

बुधवार, 27 मई 2015

नारदजी का अभिमान

✳वीणा बजाते हुए नारदमुनि भगवान श्रीराम के द्वार पर पहुँचे।

नारायण नारायण !!

नारदजी ने देखा कि द्वार पर हनुमान जी पहरा दे रहे है।फ

हनुमान जी ने पूछा: नारद मुनि ! कहाँ जा रहे हो ?

नारदजी बोले: मैं प्रभु से मिलने आया हूँ। नारदजी ने हनुमानजी से पूछा प्रभु इस समय क्या कर रहे है?

हनुमानजी बोले: पता नहीं पर कुछ बही खाते का काम कर रहे है ,प्रभु बही खाते में कुछ लिख रहे है।

नारदजी: अच्छा क्या लिखा पढ़ी कर रहे है ?

हनुमानजी बोले: मुझे पता नही , मुनिवर आप खुद ही देख आना।

नारद मुनि गए प्रभु के पास और देखा कि प्रभु कुछ लिख रहे है।

नारद जी बोले: प्रभु आप बही खाते का काम कर रहे है ? ये काम तो किसी मुनीम को दे दीजिए।

प्रभु बोले: नही नारद , मेरा काम मुझे ही करना पड़ता है। ये काम मैं किसी और को नही सौंप सकता।

नारद जी: अच्छा प्रभु ऐसा क्या काम है ?ऐसा आप इस बही खाते में क्या लिख रहे हो?

प्रभु बोले: तुम क्या करोगे देखकर , जाने दो।

नारद जी बोले: नही प्रभु बताईये ऐसा आप इस बही खाते में क्या लिखते है?

प्रभु बोले: नारद इस बही खाते में उन भक्तों के नाम है जो मुझे हर पल भजते हैं। मैं उनकी नित्य हाजरी लगाता हूँ ।

नारद जी: अच्छा प्रभु जरा बताईये तो मेरा नाम कहाँ पर है ? नारदमुनि ने बही खाते को खोल कर देखा तो उनका नाम सबसे ऊपर था। नारद जी को गर्व हो गया कि देखो मुझे मेरे प्रभु सबसे ज्यादा भक्त मानते है। पर नारद जी ने देखा कि हनुमान जी का नाम उस बही खाते में कहीं नही है? नारद जी सोचने लगे कि हनुमान जी तो प्रभु श्रीराम जी के खास भक्त है फिर उनका नाम, इस बही खाते में क्यों नही है? क्या प्रभु उनको भूल गए है?

नारद मुनि आये हनुमान जी के पास बोले: हनुमान ! प्रभु के बही खाते में उन सब भक्तो के नाम है जो नित्य प्रभु को भजते है पर आप का नाम उस में कहीं नही है?

हनुमानजी ने कहा कि: मुनिवर,! होगा, आप ने शायद ठीक से नही देखा होगा?

नारदजी बोले: नहीं नहीं मैंने ध्यान से देखा पर आप का नाम कहीं नही था।

हनुमानजी ने कहा: अच्छा कोई बात नही। शायद प्रभु ने मुझे इस लायक नही समझा होगा जो मेरा नाम उस बही खाते में लिखा जाये। पर नारद जी प्रभु एक डायरी भी रखते है उस में भी वे नित्य कुछ लिखते है।

नारदजी बोले:अच्छा ?

हनुमानजी ने कहा:हाँ !

नारदमुनि फिर गये प्रभु श्रीराम के पास और बोले प्रभु ! सुना है कि आप अपनी डायरी भी रखते है ! उसमे आप क्या लिखते है ?

प्रभु श्रीराम बोले: हाँ! पर वो तुम्हारे काम की नही है।

नारदजी: ''प्रभु ! बताईये ना , मैं देखना चाहता हूँ कि आप उसमे क्या लिखते है।

प्रभु मुस्कुराये और बोले मुनिवर मैं इन में उन भक्तों के नाम लिखता हूँ जिन को मैं नित्य भजता हूँ।

नारदजी ने डायरी खोल कर देखा तो उसमे सबसे ऊपर हनुमान जी का नाम था। ये देख कर नारदजी का अभिमान टूट गया।

✳कहने का तात्पर्य यह है कि जो भगवान को सिर्फ जीवा से भजते है उनको प्रभु अपना भक्त मानते हैं और जो ह्रदय से भजते है । ऐसे भक्तो ।को प्रभु अपनी ह्रदय रूपी डायरी में रखते हैं...!!!

नाथालाल सेठ

पुराने जमाने की बात है। किसी गाँव में एक सेठ रहेता था। उसका नाम था नाथालाल सेठ। वो जब भी गाँव के बाज़ार से निकलता था तब लोग उसे नमस्ते या सलाम करते थे , वो उसके जवाब में मुस्कुरा कर अपना सिर हिला देता था और  बहुत धीरे से बोलता था की " घर जाकर बोल दूंगा "

एक बार किसी परिचित व्यक्ति ने सेठ को ये बोलते हुये सुन लिया। तो उसने कुतूहल वश सेठ को पूछ लिया कि सेठजी आप ऐसा क्यों बोलते हो के " घर जाकर बोल दूंगा "

तब सेठ ने उस व्यक्ति को कहा, में पहले धनवान नहीं था उस समय लोग मुझे 'नाथू ' कहकर बुलाते थे और आज के समय में धनवान हूँ तो लोग मुझे 'नाथालाल सेठ' कहकर बुलाते है। ये इज्जत मुझे नहीं धन को दे रहे है ,

इस लिए में रोज़ घर जाकर तिज़ोरी खोल कर लक्ष्मीजी (धन) को ये बता देता हूँ कि आज तुमको कितने लोगो ने नमस्ते या सलाम किया। इससे मेरे मन में अभिमान या गलतफहमी नहीं आती कि लोग मुझे मान या इज्जत दे रहे हैं। ... इज्जत सिर्फ पैसे की है इंसान की नहीं ..

मंगलवार, 26 मई 2015

बेटे का हमशक्ल

 

सुपर मार्केट में शॉपिंग करते हुए एक युवक ने नोटिस किया कि एक बूढ़ी अम्मा उसका पीछा कर रही है।
वो रुकता तो बूढ़ी अम्मा रुक जाती।
वो चलता तो बूढ़ी अम्मा भी चलने लगती।

आखिर एक बार वो युवक के करीब आई और बोली---" बेटा, मेरे कारण तुम परेशान हो रहे हो। लेकिन तुम बिलकुल मेरे स्वर्गवासी बेटे जैसे दिखते हो इसलिए मैं तुम्हे देखते हुए तुम्हारे पीछे पीछे चल रही हूँ। "

युवक---" कोई बात नहीं, अम्मा जी। मुझे कोई परेशानी नहीं। "

बूढ़ी अम्मा---" बेटा, मैं जानती हूँ कि, तुम्हे अजीब लगेगा। लेकिन जब मैं स्टोर से जाऊँ तब क्या तुम मुझे एक बार ' गुड बाय, मॉम ' कहोगे, जैसा मेरा बेटा कहा करता था। मुझे बेहद ख़ुशी होगी, बेटा। "

युवक---" जी, जरूर। "

फिर, बूढ़ी अम्मा जब बाहर जाने लगी तब युवक ने जोर से आवाज लगाई---" गुड बाय, मॉम। "

बूढी अम्मा पलटी और बहुत स्नेह से युवक की तरफ देखा, मुस्कुराई और चली गई।
युवक भी बहुत खुश हुआ कि, आज वह किसी की मुस्कान का कारण बन सका।

सामान ट्रॉली में रखकर युवक काउंटर पर पहुँचा और बिल पूछा।
क्लर्क ने कहा---" 32 हजार रूपये। "

युवक---" इतना ज्यादा बिल कैसे ? मैंने तो मात्र 5 आइटम खरीदे हैं, जिनकी कीमत मुश्किल से दो - ढाई हजार होगी। "

क्लर्क---" सही कहा,सर.....लेकिन आप की मॉम बोलकर गयीं हैं कि, उन्होंने जो खरीदारी की है, उसका बिल आप पे करोगे। "

शनिवार, 23 मई 2015

Thunderstorm and fate

A bus full of passengers was traveling while. suddenly the weather changed and there was a huge downpour and lightening all around.

They could see that the lightening would appear to come towards the bus and then go elsewhere.

After 2 or 3 horrible instances of being saved from lightening, the driver stopped the bus about fifty feet away from a tree and said -

"We have somebody in the bus whose death is a certainty today."

Because of that person everybody else will also get killed today.

Now listen carefully what I am saying ..

I want each person to come out of bus one by one and touch the tree trunk and come back.

Whom so ever death is certain will get caught up by the lightening and will die & everybody else will be saved".

They had to force the 1st person to go and touch the tree and come back.

He reluctantly got down from the bus and went and touched the tree.

His heart leaped with joy when nothing happened and he was still alive.

This continued for rest of the passengers who were all relieved when they touched the tree and nothing happened.

When the last passenger's turn came, everybody looked at him with accusing eyes.

That passenger was very afraid and reluctant since he was the only one left.

Everybody forced him to get down and go and touch the tree.

With a 100% fear of death in mind, the last passenger walked to the tree and touched it.

There was a huge sound of thunder and the lightening came down and hit the bus - yes the lightening hit the bus, and killed each and every passenger inside the bus.

It was because of the presence of this last passenger that, earlier,the entire bus was safe and the lightening could not strike the bus.

LIFE LEARNING from this..

At times, we try to take credit for our present achievements, but this could also be because of a person right next to us.

Look around you - Probably someone is there around you, in the form of Your Parents, Your Spouse, Your Children, Your Siblings, Your friends, etc, who are saving you from harm..!

Think About it..

You will surely find that Person..!!

गुरुवार, 21 मई 2015

ज्ञान की प्राप्ति

राजा जनक ब्रह्मज्ञानी थे। उनके राज्य में अक्सर यज्ञों का आयोजन होता रहता था, जिनमें दूर-दूर से प्रकांड पंडित शामिल होने के लिए आते थे। एक बार वरुण ने एक यज्ञ कराना चाहा तो उन्हें उसके लिए कोई योग्य आचार्य नहीं मिले। दरअसल वे सब राजा जनक के लिए यज्ञ करवा रहे थे।यह देख वरुण का पुत्र एक ब्राह्मण के वेश में यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां उपस्थित ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर उन्हें अपने साथ अपने पिता के यज्ञस्थल र ले गया। मुनि कहोड के पुत्र अष्टावक्र को जब पता चला कि उनके पिता को भी वरुणलोक ले जाया गया है, तो उन्होंने वहां पहुंचकर वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में हराया और सभी विद्वानों को वहां से छुड़ा ले आए। इससे अष्टावक्र को अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान हो गया और यह उनके व्यवहार में भी झलकने लगा।उनके अभिमान को देख राजसभा में पधारी एक तपस्विनी ने कहा - 'आपने वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया है। अब मेरे प्रश्न का उत्तर दें और बताएं कि वह कौन-सा पद है, जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, जिससे अमरता प्राप्त होती है और हर चाह मिट जाती है?" इस पर अष्टावक्र ने कहा - 'वह देश-काल से परे अनादि है, जिसके ज्ञान से अविनाशी पद मिलता है। कोई उसे जान नहीं सकता, क्योंकि उसका कोई दूसरा ज्ञाता नहीं।" यह सुनकर तपस्विनी ने कहा - 'आपका कहना ठीक है, लेकिन आपने कहा कि उसे जाना नहीं जा सकता और फिर आप कहते हैं कि उसे जानने से अविनाशी पद मिलता है। इन दो बातों में संगति कैसे होगी? लगता है आपने सिर्फ तर्क-वितर्क में ही प्रवीणता हासिल की है। शास्त्र की दृष्टि से आपने कल्पना तो कर ली, लेकिन अनुभूति-ज्ञान नहीं हुआ।"इस पर अष्टावक्र को कोई जवाब न सूझा और उन्होंने तपस्विनी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। दरअसल यथार्थ ज्ञान कोरे तर्क-वितर्क या वाद-विवाद से परे होता है। हजार बार कहने-सुनने या रटने से उसकी प्रतीति नहीं होती। वह अनुभूत किया जाता है। जब ज्ञानी गुरु के मुख से उपदेश लेकर शिष्य विवेक-वैराग्यपूर्वक साधना करता है, तभी उसे ज्ञान की प्राप्ति होती हैं।-

मंगलवार, 12 मई 2015

ब्रह्मविद्या

राजा उदावर्त प्रजावत्सल और धर्मपरायण थे। उनके राज्य में कोई भी दु:खी नहीं था। प्रजा भी अपने राजा का बहुत सम्मान करती थी। एक दिन राजा के मन में खयाल आया कि उन्हें ब्रह्मविद्या हासिल करना चाहिए। उन्होंने अपने विश्वासपात्र मंत्री द्युतकीर्ति से इस बारे में चर्चा की।द्युतकीर्ति ने उनसे कहा - 'महाराज, मेरी राय में आपको महर्षि कणाद के पास जाना चाहिए। वे ही आपको ब्रह्मविद्या का सार प्रदान कर सकते हैं।" यह सुनकर राजा उदावर्त महर्षि कणाद के आश्रम की ओर चल पड़े। जब वे वहां पहुंचे, तो महर्षि कणाद अपने शिष्यों को ज्ञानोपदेश दे रहे थे। राजा ने महर्षि कणाद के समक्ष अपने साथ लाए बहुमूल्य रत्न-आभूषण पेश किए और उनसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने की प्रार्थना की।कणाद ने उदावर्त से कहा - 'राजन, मुझे इन रत्न-आभूषणों की कोई आवश्यकता नहीं। आप इन्हें वापस ले जाएं। मैं फिलहाल आपको ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं। आप एक वर्ष बाद आएं। तब संभवत: मैं आपकी इस इच्छा की पूर्ति कर सकूंगा। मेरी सलाह है कि इस अवधि के दौरान आप अंतर्मुखी होने की साधना करें और वृत्तियों से अपना मुंह मोड़ें।"राजा निराश होकर आश्रम से लौट आए। उन्हें काफी बुरा लगा रहा था और वे क्षुब्ध भी थे। मंत्री द्युतकीर्ति ने उनकी इस स्थिति को देख उनसे कहा - 'महाराज, आप खिन्न न हों। भूखे को ही अन्न पचता है। इसी तरह इस दुनिया में जिज्ञासु व्यक्ति ही ज्ञान का पूरा लाभ उठा पाता है। मेरे खयाल से महर्षि कणाद ने एक वर्ष की अवधि देकर आपकी जिज्ञासा को परखना चाहा है। अनधिकारी में ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य नहीं होती। मन-बहलाव के लिए कुछ कहने में समय की बर्बादी समझकर महर्षि ने आपको वापस लौटाया है। उनकी बात को सकारात्मक ढंग से लें और बुरा ना मानें।"यह सुनकर उदावर्त को महर्षि की बातों का अभिप्राय समझ में आया। उन्होंने एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण किया और इस तरह आत्मिक ज्ञान के अधिकारी बन पुन: महर्षि कणाद के आश्रम में पहुंचे। इस बार कणाद ने उन्हें गले से लगा लिया और बोले - 'धैर्यवान, श्रद्धावान जिज्ञासु ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी होते हैं। अब आप ब्रह्मविद्या का लाभ उठा सकेंगे।-

ज्ञान की प्राप्ति

राजा जनक ब्रह्मज्ञानी थे। उनके राज्य में अक्सर यज्ञों का आयोजन होता रहता था, जिनमें दूर-दूर से प्रकांड पंडित शामिल होने के लिए आते थे। एक बार वरुण ने एक यज्ञ कराना चाहा तो उन्हें उसके लिए कोई योग्य आचार्य नहीं मिले। दरअसल वे सब राजा जनक के लिए यज्ञ करवा रहे थे।यह देख वरुण का पुत्र एक ब्राह्मण के वेश में यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां उपस्थित ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर उन्हें अपने साथ अपने पिता के यज्ञस्थल र ले गया। मुनि कहोड के पुत्र अष्टावक्र को जब पता चला कि उनके पिता को भी वरुणलोक ले जाया गया है, तो उन्होंने वहां पहुंचकर वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में हराया और सभी विद्वानों को वहां से छुड़ा ले आए। इससे अष्टावक्र को अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान हो गया और यह उनके व्यवहार में भी झलकने लगा।उनके अभिमान को देख राजसभा में पधारी एक तपस्विनी ने कहा - 'आपने वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया है। अब मेरे प्रश्न का उत्तर दें और बताएं कि वह कौन-सा पद है, जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, जिससे अमरता प्राप्त होती है और हर चाह मिट जाती है?" इस पर अष्टावक्र ने कहा - 'वह देश-काल से परे अनादि है, जिसके ज्ञान से अविनाशी पद मिलता है। कोई उसे जान नहीं सकता, क्योंकि उसका कोई दूसरा ज्ञाता नहीं।" यह सुनकर तपस्विनी ने कहा - 'आपका कहना ठीक है, लेकिन आपने कहा कि उसे जाना नहीं जा सकता और फिर आप कहते हैं कि उसे जानने से अविनाशी पद मिलता है। इन दो बातों में संगति कैसे होगी? लगता है आपने सिर्फ तर्क-वितर्क में ही प्रवीणता हासिल की है। शास्त्र की दृष्टि से आपने कल्पना तो कर ली, लेकिन अनुभूति-ज्ञान नहीं हुआ।"इस पर अष्टावक्र को कोई जवाब न सूझा और उन्होंने तपस्विनी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। दरअसल यथार्थ ज्ञान कोरे तर्क-वितर्क या वाद-विवाद से परे होता है। हजार बार कहने-सुनने या रटने से उसकी प्रतीति नहीं होती। वह अनुभूत किया जाता है। जब ज्ञानी गुरु के मुख से उपदेश लेकर शिष्य विवेक-वैराग्यपूर्वक साधना करता है, तभी उसे ज्ञान की प्राप्ति होती हैं।-

ब्रह्मविद्या

राजा उदावर्त प्रजावत्सल और धर्मपरायण थे। उनके राज्य में कोई भी दु:खी नहीं था। प्रजा भी अपने राजा का बहुत सम्मान करती थी। एक दिन राजा के मन में खयाल आया कि उन्हें ब्रह्मविद्या हासिल करना चाहिए। उन्होंने अपने विश्वासपात्र मंत्री द्युतकीर्ति से इस बारे में चर्चा की।द्युतकीर्ति ने उनसे कहा - 'महाराज, मेरी राय में आपको महर्षि कणाद के पास जाना चाहिए। वे ही आपको ब्रह्मविद्या का सार प्रदान कर सकते हैं।" यह सुनकर राजा उदावर्त महर्षि कणाद के आश्रम की ओर चल पड़े। जब वे वहां पहुंचे, तो महर्षि कणाद अपने शिष्यों को ज्ञानोपदेश दे रहे थे। राजा ने महर्षि कणाद के समक्ष अपने साथ लाए बहुमूल्य रत्न-आभूषण पेश किए और उनसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने की प्रार्थना की।कणाद ने उदावर्त से कहा - 'राजन, मुझे इन रत्न-आभूषणों की कोई आवश्यकता नहीं। आप इन्हें वापस ले जाएं। मैं फिलहाल आपको ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं। आप एक वर्ष बाद आएं। तब संभवत: मैं आपकी इस इच्छा की पूर्ति कर सकूंगा। मेरी सलाह है कि इस अवधि के दौरान आप अंतर्मुखी होने की साधना करें और वृत्तियों से अपना मुंह मोड़ें।"राजा निराश होकर आश्रम से लौट आए। उन्हें काफी बुरा लगा रहा था और वे क्षुब्ध भी थे। मंत्री द्युतकीर्ति ने उनकी इस स्थिति को देख उनसे कहा - 'महाराज, आप खिन्न न हों। भूखे को ही अन्न पचता है। इसी तरह इस दुनिया में जिज्ञासु व्यक्ति ही ज्ञान का पूरा लाभ उठा पाता है। मेरे खयाल से महर्षि कणाद ने एक वर्ष की अवधि देकर आपकी जिज्ञासा को परखना चाहा है। अनधिकारी में ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य नहीं होती। मन-बहलाव के लिए कुछ कहने में समय की बर्बादी समझकर महर्षि ने आपको वापस लौटाया है। उनकी बात को सकारात्मक ढंग से लें और बुरा ना मानें।"यह सुनकर उदावर्त को महर्षि की बातों का अभिप्राय समझ में आया। उन्होंने एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण किया और इस तरह आत्मिक ज्ञान के अधिकारी बन पुन: महर्षि कणाद के आश्रम में पहुंचे। इस बार कणाद ने उन्हें गले से लगा लिया और बोले - 'धैर्यवान, श्रद्धावान जिज्ञासु ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी होते हैं। अब आप ब्रह्मविद्या का लाभ उठा सकेंगे।-

ज्ञान की प्राप्ति

राजा जनक ब्रह्मज्ञानी थे। उनके राज्य में अक्सर यज्ञों का आयोजन होता रहता था, जिनमें दूर-दूर से प्रकांड पंडित शामिल होने के लिए आते थे। एक बार वरुण ने एक यज्ञ कराना चाहा तो उन्हें उसके लिए कोई योग्य आचार्य नहीं मिले। दरअसल वे सब राजा जनक के लिए यज्ञ करवा रहे थे।यह देख वरुण का पुत्र एक ब्राह्मण के वेश में यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां उपस्थित ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर उन्हें अपने साथ अपने पिता के यज्ञस्थल र ले गया। मुनि कहोड के पुत्र अष्टावक्र को जब पता चला कि उनके पिता को भी वरुणलोक ले जाया गया है, तो उन्होंने वहां पहुंचकर वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में हराया और सभी विद्वानों को वहां से छुड़ा ले आए। इससे अष्टावक्र को अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान हो गया और यह उनके व्यवहार में भी झलकने लगा।उनके अभिमान को देख राजसभा में पधारी एक तपस्विनी ने कहा - 'आपने वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया है। अब मेरे प्रश्न का उत्तर दें और बताएं कि वह कौन-सा पद है, जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, जिससे अमरता प्राप्त होती है और हर चाह मिट जाती है?" इस पर अष्टावक्र ने कहा - 'वह देश-काल से परे अनादि है, जिसके ज्ञान से अविनाशी पद मिलता है। कोई उसे जान नहीं सकता, क्योंकि उसका कोई दूसरा ज्ञाता नहीं।" यह सुनकर तपस्विनी ने कहा - 'आपका कहना ठीक है, लेकिन आपने कहा कि उसे जाना नहीं जा सकता और फिर आप कहते हैं कि उसे जानने से अविनाशी पद मिलता है। इन दो बातों में संगति कैसे होगी? लगता है आपने सिर्फ तर्क-वितर्क में ही प्रवीणता हासिल की है। शास्त्र की दृष्टि से आपने कल्पना तो कर ली, लेकिन अनुभूति-ज्ञान नहीं हुआ।"इस पर अष्टावक्र को कोई जवाब न सूझा और उन्होंने तपस्विनी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। दरअसल यथार्थ ज्ञान कोरे तर्क-वितर्क या वाद-विवाद से परे होता है। हजार बार कहने-सुनने या रटने से उसकी प्रतीति नहीं होती। वह अनुभूत किया जाता है। जब ज्ञानी गुरु के मुख से उपदेश लेकर शिष्य विवेक-वैराग्यपूर्वक साधना करता है, तभी उसे ज्ञान की प्राप्ति होती हैं।-

What you see may not be the reality.

STORY FOR GROWTH:

A lovely little girl was holding two apples with both hands.
Her mum came in and softly asked her little daughter with a smile: my sweetie, could you give your mum one of your two apples?
The girl looked up at her mum for some seconds, then she suddenly took a quick bite on one apple, and then quickly on the other.
The mum felt the smile on her face freeze. She tried hard not to reveal her disappointment.
Then the little girl handed one of her bitten apples to her mum,and said: mummy, here you are. This is the sweeter one.

No matter who you are, how experienced you are, and how knowledgeable you think you are, always delay judgement.  Give others the privelege to explain themselves. What you see may not be the reality. Never conclude for others.

सोमवार, 11 मई 2015

A lesson for every son and hope for every father

A son took his old father to a  restaurant for an evening dinner.  
Father being very old and weak, while eating, dropped food on  his shirt and trousers.   
Others diners watched him in disgust while his son was calm.

After he finished eating,  his son who was not at all embarrassed, quietly took him  to the wash room, wiped the food particles, removed the stains, combed his hair and fitted  his spectacles firmly.  When they came out,  the entire restaurant was watching them in dead silence, not able to grasp how someone could embarrass themselves publicly like that.

The son settled the bill and started walking out with his father.

At that time, an  old man amongst the diners
called out to the son and asked him, "Don't you think you have left something behind?".

The son replied,
"No sir, I haven't".

The old man retorted, "Yes, you have! You left a lesson for every son and hope for every father".

The restaurant went silent.

बुधवार, 6 मई 2015

तुच्छ प्रलोभन

एक नगर मे रहने वाले एक पंडित जी की ख्याति दूर-दूर तक थी। पास ही के गाँव मे स्थित मंदिर के पुजारी का आकस्मिक निधन होने की वजह से, उन्हें वहाँ का पुजारी नियुक्त किया गया था।
एक बार वे अपने गंतव्य की और जाने के लिए बस मे चढ़े, उन्होंने कंडक्टर को किराए के रुपये दिए और सीट पर जाकर बैठ गए।

कंडक्टर ने जब किराया काटकर उन्हे रुपये वापस दिए तो पंडित जी ने पाया की कंडक्टर ने दस रुपये ज्यादा दे दिए है। पंडित जी ने सोचा कि थोड़ी देर बाद कंडक्टर को रुपये वापस कर दूँगा।
कुछ देर बाद मन मे विचार आया की बेवजह दस रुपये जैसी मामूली रकम को लेकर परेशान हो रहे है, आखिर ये बस कंपनी वाले भी तो लाखों कमाते है, बेहतर है इन रूपयो को भगवान की भेंट समझकर अपने पास ही रख लिया जाए। वह इनका सदुपयोग ही करेंगे।

मन मे चल रहे विचार के बीच उनका गंतव्य स्थल आ गया बस से उतरते ही उनके कदम अचानक ठिठके, उन्होंने जेब मे हाथ डाला और दस का नोट निकाल कर कंडक्टर को देते हुए कहा, "भाई तुमने मुझे किराया काटने के बाद भी दस रुपये ज्यादा दे दिए थे।"

कंडक्टर मुस्कराते हुए बोला, "क्या आप ही गाँव के मंदिर के नए पुजारी है?"
पंडित जी के हामी भरने पर कंडक्टर बोला, "मेरे मन मे कई दिनों से आपके प्रवचन सुनने की इच्छा थी, आपको बस मे देखा तो ख्याल आया कि चलो देखते है कि मैं अगर ज्यादा पैसे दूँ तो आप क्या करते हो! अब मुझे विश्वास हो गया कि आपके प्रवचन जैसा ही आपका आचरण है। जिससे सभी को सीख लेनी चाहिए" बोलते हुए, कंडक्टर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

पंडित जी बस से उतरकर पसीना पसीना थे। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान का आभार व्यक्त किया, "प्रभु तेरा लाख लाख शुक्र है जो तूने मुझे बचा लिया, मैने तो दस रुपये के लालच मे तेरी शिक्षाओ की बोली लगा दी थी। पर तूने सही समय पर मुझे सम्भलने का अवसर दे दिया।"

कभी कभी हम भी तुच्छ से प्रलोभन में, अपने जीवन भर की चरित्र पूंजी दांव पर लगा देते है।

मंगलवार, 5 मई 2015

Brother like Ravana

A pregnant mother asked her daughter, “What do u want- A brother or a sister?“

Daughter:- Brother

Mother:- Like whom?

Daughter:- Like RAVAN

Mother:- What the hell are you saying? Are you out of your mind?

Daughter:- Why not Mom? He left all his Royalship &
Kingdom, all because his sister was disrespected.
Even after picking up his enemy’s wife, he didn’t ever touch her. Why wouldn’t I want to have a brother like him?
What would I do with a brother like Ram who left his pregnant wife after listening to a “Dhobi” though his wife always stood by his side like a shadow? After giving “Agni Pareeksha” & suffering 14 years of exile.
Mom, you being a wife & sister to someone, until when will you keep on asking for a “RAM” as your son???

Mother was in tears.

Moral:- No one in the world is good or bad. Its just an interpretation about someone. Change Ur perception
Irony of life :

A temple is a very interesting place - The poor beg outside & the rich beg inside...
Ultimate philosophy ����

शनिवार, 2 मई 2015

विवेकानंद और शादी

महान विचार
मैं आपसे शादी करना चाहती
हूँ"-एक विदेशी महिला ने विवेकानंद से
कहा
विवेकानंद ने पूछा-"क्यों देवी पर मैं तो ब्रह्मचारी हूँ?"
महिला ने जवाब दिया-"क्योंकि मुझे आपके जैसा ही एक पुत्र
चाहिए,
जो पूरी दुनिया में मेरा नाम रौशन करे और वो केवल आपसे शादी
करके
ही मिल सकता है मुझे"
"इसका और एक उपाय है"-विवेकानंद कहते हैं
विदेशी महिला पूछती है-"क्या?"
विवेकानंद ने मुस्कुराते हुए कहा-"आप मुझे ही अपना पुत्र मान
लीजिये
और आप मेरी माँ बन जाइए ऐसे में आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल
जाएगा और मुझे अपना ब्रह्मचर्य भी नही तोड़ना पड़ेगा"
महिला हतप्रभ होकर विवेकानंद को ताकने लगी और रोने लग गयी,
ये होती है महान आत्माओ की विचार धारा ।

"पूरे  समुंद्र  का  पानी  भी एक  जहाज  को  नहीं डुबा  सकता,  जब  तक पानी को जहाज  अन्दर  न आने दे।
            
इसी  तरह  दुनिया  का कोई  भी  नकारात्मक विचार  आपको  नीचे नहीं  गिरा  सकता,  जब तक  आप  उसे  अपने अंदर  आने  की  अनुमति न  दें।"