राजा जनक ब्रह्मज्ञानी थे। उनके राज्य में अक्सर यज्ञों का आयोजन होता रहता था, जिनमें दूर-दूर से प्रकांड पंडित शामिल होने के लिए आते थे। एक बार वरुण ने एक यज्ञ कराना चाहा तो उन्हें उसके लिए कोई योग्य आचार्य नहीं मिले। दरअसल वे सब राजा जनक के लिए यज्ञ करवा रहे थे।यह देख वरुण का पुत्र एक ब्राह्मण के वेश में यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां उपस्थित ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर उन्हें अपने साथ अपने पिता के यज्ञस्थल र ले गया। मुनि कहोड के पुत्र अष्टावक्र को जब पता चला कि उनके पिता को भी वरुणलोक ले जाया गया है, तो उन्होंने वहां पहुंचकर वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में हराया और सभी विद्वानों को वहां से छुड़ा ले आए। इससे अष्टावक्र को अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान हो गया और यह उनके व्यवहार में भी झलकने लगा।उनके अभिमान को देख राजसभा में पधारी एक तपस्विनी ने कहा - 'आपने वरुण के पुत्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया है। अब मेरे प्रश्न का उत्तर दें और बताएं कि वह कौन-सा पद है, जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, जिससे अमरता प्राप्त होती है और हर चाह मिट जाती है?" इस पर अष्टावक्र ने कहा - 'वह देश-काल से परे अनादि है, जिसके ज्ञान से अविनाशी पद मिलता है। कोई उसे जान नहीं सकता, क्योंकि उसका कोई दूसरा ज्ञाता नहीं।" यह सुनकर तपस्विनी ने कहा - 'आपका कहना ठीक है, लेकिन आपने कहा कि उसे जाना नहीं जा सकता और फिर आप कहते हैं कि उसे जानने से अविनाशी पद मिलता है। इन दो बातों में संगति कैसे होगी? लगता है आपने सिर्फ तर्क-वितर्क में ही प्रवीणता हासिल की है। शास्त्र की दृष्टि से आपने कल्पना तो कर ली, लेकिन अनुभूति-ज्ञान नहीं हुआ।"इस पर अष्टावक्र को कोई जवाब न सूझा और उन्होंने तपस्विनी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। दरअसल यथार्थ ज्ञान कोरे तर्क-वितर्क या वाद-विवाद से परे होता है। हजार बार कहने-सुनने या रटने से उसकी प्रतीति नहीं होती। वह अनुभूत किया जाता है। जब ज्ञानी गुरु के मुख से उपदेश लेकर शिष्य विवेक-वैराग्यपूर्वक साधना करता है, तभी उसे ज्ञान की प्राप्ति होती हैं।-
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