राजा उदावर्त प्रजावत्सल और धर्मपरायण थे। उनके राज्य में कोई भी दु:खी नहीं था। प्रजा भी अपने राजा का बहुत सम्मान करती थी। एक दिन राजा के मन में खयाल आया कि उन्हें ब्रह्मविद्या हासिल करना चाहिए। उन्होंने अपने विश्वासपात्र मंत्री द्युतकीर्ति से इस बारे में चर्चा की।द्युतकीर्ति ने उनसे कहा - 'महाराज, मेरी राय में आपको महर्षि कणाद के पास जाना चाहिए। वे ही आपको ब्रह्मविद्या का सार प्रदान कर सकते हैं।" यह सुनकर राजा उदावर्त महर्षि कणाद के आश्रम की ओर चल पड़े। जब वे वहां पहुंचे, तो महर्षि कणाद अपने शिष्यों को ज्ञानोपदेश दे रहे थे। राजा ने महर्षि कणाद के समक्ष अपने साथ लाए बहुमूल्य रत्न-आभूषण पेश किए और उनसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने की प्रार्थना की।कणाद ने उदावर्त से कहा - 'राजन, मुझे इन रत्न-आभूषणों की कोई आवश्यकता नहीं। आप इन्हें वापस ले जाएं। मैं फिलहाल आपको ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं। आप एक वर्ष बाद आएं। तब संभवत: मैं आपकी इस इच्छा की पूर्ति कर सकूंगा। मेरी सलाह है कि इस अवधि के दौरान आप अंतर्मुखी होने की साधना करें और वृत्तियों से अपना मुंह मोड़ें।"राजा निराश होकर आश्रम से लौट आए। उन्हें काफी बुरा लगा रहा था और वे क्षुब्ध भी थे। मंत्री द्युतकीर्ति ने उनकी इस स्थिति को देख उनसे कहा - 'महाराज, आप खिन्न न हों। भूखे को ही अन्न पचता है। इसी तरह इस दुनिया में जिज्ञासु व्यक्ति ही ज्ञान का पूरा लाभ उठा पाता है। मेरे खयाल से महर्षि कणाद ने एक वर्ष की अवधि देकर आपकी जिज्ञासा को परखना चाहा है। अनधिकारी में ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य नहीं होती। मन-बहलाव के लिए कुछ कहने में समय की बर्बादी समझकर महर्षि ने आपको वापस लौटाया है। उनकी बात को सकारात्मक ढंग से लें और बुरा ना मानें।"यह सुनकर उदावर्त को महर्षि की बातों का अभिप्राय समझ में आया। उन्होंने एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण किया और इस तरह आत्मिक ज्ञान के अधिकारी बन पुन: महर्षि कणाद के आश्रम में पहुंचे। इस बार कणाद ने उन्हें गले से लगा लिया और बोले - 'धैर्यवान, श्रद्धावान जिज्ञासु ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी होते हैं। अब आप ब्रह्मविद्या का लाभ उठा सकेंगे।-
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