रविवार, 9 अक्टूबर 2016

वाणी

*"वाणी"*
वन-विहार के लिये आये हुये राजा का जहाँ पड़ाव था, उसी के पास एक कुएँ पर एक अन्धा
यात्रियों को कुएँ से निकालकर जल पिलाया करता था।

राजा को प्यास लगी। उसने अपने सिपाही को पानी लाने भेजा।
सिपाही वहाँ जाकर बोला- ‘‘ओ रे अन्धे एक लोटा जल इधर दे।”

सूरदास ने कहा- ‘‘जा भाग तुझ जैसे मूर्ख नौकर को पानी नहीं देता।”
सिपाही खीझ कर वापस लौट गया।

अब प्रधान सेनापति स्वयं वहाँ पहुँचे और कहा- ‘‘अन्धे भाई एक लोटा जल शीघ्रता से दे दो।” अन्धे ने उत्तर दिया- ‘‘कपटी मीठा बोलता है, लगता है पहले वाले का सरदार है। मेरे पास तेरे लिये पानी नहीं।”

दोनों ने राजा से शिकायत की, महाराज बुड्ढा पानी नहीं देता।

राजा उन दोनों को लेकर स्वयं वहाँ पहुँचा और नमस्कार कर कहा- ‘‘बाबा जी! प्यास से गला सूख रहा है, थोड़ा जल दें, तो प्यास बुझायें।”

अन्धे ने कहा- ‘‘महाराज! बैठिये अभी जल पिलाता हूँ।”

राजा ने पूछा- ‘‘महात्मन्! आपने चक्षुहीन होकर भी यह कैसे जाना कि एक नौकर, दूसरा सरदार और मैं राजा हूँ।”

बुड्ढे ने हँसकर कहा- ‘‘महाराज! व्यक्ति का वजन वाणी से पता चल जाता है, उसके लिये आँखों की कोई आवश्यकता नहीं।”
✍मंथन✍

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