शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

अन्धत्व की पीड़ा

अन्धत्व की पीड़ा

शिष्य- हे प्रभो, मैं दिन-रात प्रवचन सुनता हूं, तत्वचर्चा करता हूं, कर्इ शिविरों में भी मैं सम्मिलित हुआ हूं। ऐसा करते-करते दसियों साल गुजर गये, फिर भी मुझे आजतक मेरी निज-वस्तु की प्राप्ति नहीं हुर्इ है, सो क्या कारण है?
सदगुरू - वत्स, आपका प्रश्न बहुत सामयिक है। अधिकांश जिज्ञासु जीवों की भी यह उलझन होती है। इसको समझने के लिए निम्न उदाहरण दृष्टव्य है-
बहुत समय पूर्व की बात है; जेम्स नामक एक व्यक्ति अफ्रीका के घने जंगलो में सोने की खदानों की खोज करने निकलता है। एक दिन कुछ खराबी आ जाने से उसका हेलीकाप्टर एक पहाड़ी प्रदेश में गिर जाता है। जेम्स किसी तरह पैराशूट के सहारे बाहर छलांग लगा देता है। उतरते समय पेड़ों से टकराते-टकराते वह किसी तरह जमीन पर गिरता है और बेहोश हो जाता है।

वह क्षेत्र बड़ा ही विकट था। वहा पर उंचे-उंचे पहाड़, नदियां ओैर खाइयां थी। उस क्षेत्र में कुछ जहरीले पौधे थे जिनसे रिसने वाली विषैली गैस वहां पर रहने वाले सभी जीवों को अंधा बना देती थी। इस कारण जेम्स भी होश में आने पर अपने आपको अंधा पाता है।
ऐसी विकट स्थिति में वह काफी डर जाता है और जोर-जोर से चिल्लाता है कि बचाओ-बचाओ। किन्तु कोर्इ भी उसे बचाने वाला नहीं आता है। तब वह थोड़ी हिम्मत जुटाकर धीरे-धीरे टटोल-टटोलकर आगे बढ़ता है। काफी चलने पर उसे कुछ आवाजें सुनार्इ देती हैं। वह बड़ी मुश्किल से उन लोगो के पास पहुंचता है और उन्हें अपनी विपदा सुनाता है।
तब उस गांव वाले उसे बताते हैं कि वे भी बचपन से ही अंधे हैं लेकिन इस अंधत्व के साथ रहना उन्होनें सीख लिया है और अब उन्हें द्रष्टि की कोर्इ आवश्यकता महसूस नहीं होती है।
अधिकांश अंधे अपनी इसी स्थिति में खुश रहते हैं और अपने घर गृहस्थी के कामों मे ही मग्न रहते हैं। कुछ अंधे भगवान की भक्ति-पूजा में अपने आपको लगाये रखते हैं।
कुछ अंधे द्रष्टि मिलने के फायदों पर भी दिन-रात चर्चा करते रहते हैं किन्तु उसे पाने की कोर्इ इच्छा-शक्ति उनमें नहीं दिखती है।
जेम्स कुछ दिन वहां रुककर विश्राम करता है, किन्तु उसे हर समय अपने अंधत्व की पीड़ा सताती रहती है। जैसे ही उसकी अवस्था कुछ सुधरती है, वह उस क्षेत्र से बाहर निकलने की सोचता है।
खाने पीने रहने आदि की कोर्इ कमी न होते हुये भी वह उस स्थान को शीध्र छोड़ना चाहता है; ताकि वह बाहर निकलकर अपनी आंखो का इलाज करवा सके। वह दिन-रात अपने घर की यादो में, उसके वैभवों में ही खोया रहता है। सपने भी उसे अपने घर परिवार के ही आते रहते हैं।
वह प्रत्येक गांव वाले से वहां से बाहर निकलने का मार्ग पूछता है किन्तु वे कहते हैं कि वे स्वयं अंधे हैं, अत: उन्हें बाहर निकलने का मार्ग नहीं पता है।
एक-दो अंधे ऐसे भी मिलते हैं, जिन्हें मार्ग मालूम नहीं होने पर भी वे इसे मार्ग बताने का ढोंग करते हैं और गलत मार्ग बता देते हैं।

उस मार्ग पर आगे उसे रास्ता नहीं मिलता है और फिर उसे अत्यन्त परेशान होकर, निराश होकर वापस आना पडत़ा है।
लेकिन उसके मन में वहां से निकलने की सच्ची लगन थी और अंदर ही अंदर उसे अपना अंधत्व कचोट रहा था। अत: देवयोग से उसे एक दिन एक ऐसा व्यक्ति मिलता है जो उसे बताता है कि वह वहां से निकलने का मार्ग जानता हैं ओैर चूंकि उसने विषैली गैस से बचाने वाला चश्मा पहन रखा है, इसलिये उस क्षेत्र में घूमते हुये भी वह अंधा नहीं होता है ।
उस व्यक्ति को उस क्षेत्र में रहने वाले अंधे जीवों पर अत्यन्त करूणा है और इसलिये वे उन्हें बार-बार समझाते रहते हैं कि इस क्षेत्र से बाहर निकलकर अपनी आंखो का इलाज करवा लो और चश्मा लगा लो। फिर आपकी इच्छा हो तो इस क्षेत्र में घूमो, क्योकि तब तुम्हे कोर्इ भी नुकसान नहीं होगा।
कर्इ लोग उस व्यक्ति से वहां से निकलने का मार्ग तो पूछ लेते हैं किन्तु अंदर से उन्हें वहाँ से निकलने की कोर्इ लगन नहीं होने से वे वहां से जाना ही नहीं चाहते हैं।
ऐसे ही व्यक्ति बाद में खुद को मार्ग का ज्ञानी बताकर दूसरों को मार्ग समझाने लगते हैं। लेकिन किसी भी अंधे के बताये गये मार्ग पर चलने से कभी किसी का भला संभव हो सकता है क्या?
हमारे नायक जेम्स को वह व्यक्ति भगवान स्वरूप लगने लगता है। वह उसके चरण पकड़ लेता है और कहता है कि मुझे शीध्र ही इस स्थान से निकाल बाहर कर दो। मैं अब एक पल भी यहां नहीं रहना चाहता हूं। मैं इस अंधत्व से अत्यन्त परेशान हूं।
तब करूणा-मूर्ति ऐसे वह सदगुरू जेम्स को अपने साथ बाहर ले जाते हैं और उसका इलाज करवाकर उसे द्रष्टि प्रदान करवा देते हैं। इसके पश्चात जेम्स शीध्र ही अपने देश चला जाता है और वहां पर अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रहने लगता है।
हे प्रभो, इस दृष्टांत में कर्इ गंभीर भाव भरे हुये हैं जिन्हें आपको बहुत गहरार्इ से विचार करना चाहिये।
इस कथा में आया गांव चतुर्गति रूपी इस संसार को दर्शाता है, जहां पर तरह-तरह के जीव निवास करते
हैं।
समस्त केवलज्ञानी भगवन्त देख व जान रहे हैं कि ये जीव अनादि से अंधे हैं लेकिन ये जीव स्वयं को अंधा न मानकर कभी कुछ मानते हैं कभी कुछ। एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में भ्रमण के साथ इनकी मान्यता भी बदलती रहती हैं। इनका विवरण निम्नानुसार है:-
एक इन्द्रिय से पंचेन्द्रीय असंज्ञी अवस्था में अनन्तानन्त जीव राशि रह रही है। उन्हें अपने अंधेत्वपने का भान ही नहीं है तो वे उसे दूर करने का उपाय किस तरह कर सकते हैं।
उपरोक्त जीवराशि का अनन्तवां भाग ही पंचेन्द्रिय संज्ञी-पना में आता है और उसमें भी सामान्यत: देव भव, तिर्यन्च भव व नरक भव में अपने अंधत्व पर द्रष्टि ही नहीं जाती है। अत: वे उसे दूर नहीं कर पाते हैं।
उपरोक्त पंचेन्द्रिय संज्ञी जीव राशि के असंख्यवें भाग को ही महाभाग्य से मनुष्यपना मिलता है।
अब इस मनुष्यभव के अंधे जीवों को निम्न भागों में बांटा जा सकता है -
1:    अधिकांश मनुष्य तो अपने संसार के रागादि के कार्यों में ही मग्न रहते हैं। उन्हें होश ही नहीं रहता है। वे तो उपरोक्त कथा में आये अधिकांश अंधे गांव वालों की तरह ही अपना जीवन खाने, कमाने और परिवार को सम्भालने में व्यतीत कर देते हैं।
2:    कुछ अंधे जीव भक्ति-पूजा, जप-तप, स्वाध्याय आदि में संतुष्ट रहकर अपना भला मानते हैं और सोचते हैं कि इस तरह करने पर उन्हें दिव्य द्रष्टि प्राप्त होगी लेकिन उन्हें वर्तमान के अंधत्व की कोर्इ बैचेनी या पीड़ा नहीं रहती है।
3:    अत्यल्प संख्या में कुछ अंधे ऐसे भी हैं जिन्होंने किसी द्रष्टिवान व्यक्ति से आँख या चक्षु होने के फायदे सुन रखे होते हैं या पढ़ रखे होते हैं. अत: वे इस द्रष्टि रूपी आत्मा के मिलने से होने वाले लाभों की ही दिन-रात चर्चा करते हुये अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत कर देते हैं; किन्तु उन्हें भी वर्तमान में अंधत्व की कोर्इ पीड़ा महसूस नहीं होती है।
सुख से संतुष्ट एवं दुख से असंतुष्ट रहते हुये वे आत्मा की लाटरी खुलने की इच्छा, प्रतीक्षा करते रहते हैं।
4:    बहुत थोड़े अंधे जीव ऐसे भी होते हैं जिन्हें खुद तो मार्ग दिखार्इ नहीं देता है फिर भी वे दूसरों को मार्ग बताने का छल करते रहते हैं।
उन्होने आत्मा के बारे में किसी सदगुरू से सुना होता है या ग्रंथों में पढ़ा होता है लेकिन रूचि नहीं होने से उन्हें उसकी प्राप्ति नहीं होती है। अत: उनके बताये मार्ग पर चलकर उनके अनुयायी लोग भटकते ही रहते हैं.
5:    कुछ ऐसे भी प्राणी होते हैं जो होते तो अंधे हैं, परन्तु घोषणा करते हैं कि मैं द्रष्टिवान हूं, मुझे मार्ग स्पष्ट दिखार्इ दे रहा है। मेरे बताये मार्ग पर अगर आप चलोगे तो आपको अपने आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी।
ऐसे जीव खुद तो डूबते ही हैं, दूसरों को भी डुबोते हैं।
हे प्रभो, कोई भी अंधा व्यक्ति कितना भी सम्भलकर चलने का प्रयत्न करे, किन्तु वह खुद तो ठोकर खायेगा ही, साथ ही उसके शिष्य भी भटकेंगे ही।
अत: उपरोक्त पांचों तरह के मनुष्य भव आपने अनन्त बार धारण किये हैं, फिर भी आपका अनादिकाल से अभी तक भव-भ्रमण का अंत नहीं हुआ है। अत: अब तो आपके नीचे की भूमि खिसक जानी चाहिये और आपको लगना चाहिये कि आप मिथ्यात्व रूपी अंधत्व की अनन्त गहरार्इ में गिरते जा रहे हो और कोर्इ आपको सम्भालने वाला नहीं है।
ऐसे ही दशा हमारी इस कथा के नायक जेम्स की होती है जो अंधत्व की पीड़ा से इतना परेशान रहता है कि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है और वह इसे दूर करने का उपाय ढूंढ़ता रहता है।
हे प्रभो, निश्चय से मान लो कि आपका परिवार तो आपका चेतन द्रव्य और उसके अनन्त गुण हैं।
इनमें से प्रत्येक गुण में अनन्त शक्ति भरी हुर्इ है, जो आपको सदाकाल अक्षत सुख पहुंचाने में समर्थ है।
फिर भी आप अपने इस परिवार को छोड़कर पर में सुख प्राप्ति की आशा में घनघोर अंधकार रूपी इस संसार में इधर-उधर भटक रहे हो और आप अपनी ही निज वस्तु अपनी आत्मा और उसके वैभव को ही देख नहीं पा रहे हो।
यही आपके निज स्वरूप की प्राप्ति में बाधा पहुंचाने वाला मुख्य कारण है।
इस अंधत्व की पीड़ा को जो जिज्ञासु जानता है, मानता है और अनुभव करता है, वही उसे दूर करने का उपाय कर सकता है।
अन्य सभी अंधे जीव उपरोक्त तरह से इस संसार रूपी रंगमंच में बारी-बारी से प्रत्येक भूमिका में अनन्त बार आते रहे हैं ओैर आगे भी आते रहेंगे।

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