रविवार, 18 सितंबर 2016

इच्छापूर्ति   वॄक्ष  

इच्छापूर्ति   वॄक्ष  

एक घने जंगल में एक इच्छापूर्ति वृक्ष था.. !!
उसके नीचे बैठ कर किसी भी चीज की इच्छा करने से वह तुरंत पूरी हो जाती थी .. !!

यह बात बहुत कम लोग जानते थे .. !!
क्योंकि उस घने जंगल में जाने की कोई हिम्मत ही नहीं करता था .. !!

*"एक बार संयोग से एक थका हुआ इंसान उस वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया"* .. !!
उसे पता ही नहीं चला, कि कब उसकी नींद लग गई .. !!

जब वह जागा तो उसे बहुत भूख लग रही थी .. !!
उसने आस पास देखकर सोचा .. *"काश कुछ खाने को मिल जाए"* .. !!
तत्काल स्वादिष्ट पकवानों से भरी थाली हवा में तैरती हुई उसके सामने आ गई .. !!
उस इंसान ने भरपेट खाना खाया .. !!

और भूख शांत होने के बाद सोचने लगा .. !!
*"काश कुछ पीने को मिल जाए"* .. !! तत्काल उसके सामने हवा में तैरते हुए कई तरह के शरबत आ गए .. !!

शरबत पीने के बाद वह आराम से बैठ कर सोचने लगा .. !!
हवा में से खाना और पानी प्रकट होते पहले न कभी देखा, न ही सुना .. !!

उसने सोचा *"जरूर इस पेड़ पर कोई भूत रहता है .. जो मुझे खिला पिला कर बाद में मुझे खा लेगा"* .. !!
ऐसा सोचते ही तत्काल उसके सामने एक भूत आया और उसे खा गया .. !!

इस प्रसंग से आप यह सीख सकते है .. !!
कि हमारा मस्तिष्क ही इच्छापूर्ति वृक्ष है, आप जिस चीज की प्रबल कामना करेंगे *"वह आपको अवश्य मिलेगी"* .. !!

अधिकांश लोगों को जीवन में बुरी चीजें इसलिए मिलती हैं .. !!
क्योंकि *"वह बुरी चीजों की ही कामना करते हैं"* .. !!

इंसान ज्यादातर समय सोचता है .. !!
*"कहीं बारिश में भीगने से मै बीमार न हों जाँऊ"* .. !!
और वह बीमार हो जाता हैं .. !!

इंसान सोचता है .. *"कहीं मुझे व्यापार में घाटा न हों जाए"* .. !!
और घाटा हो जाता हैं .. !!

इंसान सोचता है .. *"मेरी किस्मत ही खराब है"* .. !!
और उसकी किस्मत सचमुच खराब हो जाती हैं .. !!

इंसान सोचता है .. *"कहीं मेरा बाँस मुझे नौकरी से न निकाल दे"* .. !!
और बाँस उसे नौकरी से निकाल देता है .. !!

इस तरह आप देखेंगे .. कि आपका अवचेतन मन इच्छापूर्ति वृक्ष की तरह आपकी इच्छाओं को ईमानदारी से पूर्ण करता है .. !!

*"इसलिए आपको अपने मस्तिष्क में विचारों को सावधानी से प्रवेश करने की अनुमति देनी चाहिए"* .. !!

अगर गलत विचार अंदर आ जाएगें तो गलत परिणाम मिलेंगे .. !!

विचारों पर काबू रखना ही अपने जीवन पर काबू करने का रहस्य है .. !!
आपका जीवन *"स्वर्ग बनता है या नरक"* .. !!

*"यह आपके विचार / सोच के उपर निरभर करता है"* .. !!
उनकी ही बदौलत बनता है आपका जीवन .. *"सुखमय या दुख:मय"* .. !!

*"विचार जादूगर की तरह होते है"* .. !!
*"जिन्हें बदलकर आप अपना जीवन बदल सकते है"* .. !!

"जिनकी इच्छा शक्ति दृढ़ होती हैं .. !!
वे सांसारिक दौलत के नुकसान की कभी शिकायत नहीं करते" ..

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

महत्वपूर्ण पाठ

एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे  आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें  टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ...

उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ?

हाँ ... आवाज आई ...

फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये ,

फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा

अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ...

फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ  .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा ..

सर ने टेबल के नीचे से  चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित
थोडी सी जगह में सोख ली गई ...

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया

इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....

टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,

छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और

रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..

अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या  कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...

ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ...

यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे  और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय  नहीं रहेगा ...

मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ ,  घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ...

टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है ..

छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे ..

अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया  कि " चाय के दो कप " क्या हैं ?

प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...

इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन  अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिए।

(अगर अच्छा लगे तो अपने ख़ास मित्रों और निकटजनों को यह विचार तत्काल भेजें.... मैंने तो अभी-अभी यही किया है)

तरबूजे की कहानी

हिंदी दिवस विशेष :

तरबूजे की कहानी, रक्षा मंत्री मनोहर परिकर की जुबानी : जरूर पढ़िए

मैं गोवा के पर्रा गाँव का रहने वाला हू इसलिए हमको पर्रिकर बुलाया जाता है। मेरा गाँव तरबूज के लिए बड़ा प्रचिलित है । जब मैं छोटा था तो वहाँ के किसान तरबूज खाने की प्रतियोगिता करवाते थे। गाव के सभी बच्चो को वह बुलाया जाता था और जितना मन चाहे उतने तरबूज  खाने की छूट थी। तरबूज का आकार बहुत बड़ा हुआ करता था ।

कुछ साल बाद मैं आई आई टी मुम्बई में इंजीनियरिंग करने आ गया और पुरे साढ़े 6 साल बाद अपने गाव पंहुचा।  सबसे पहले मैं उस तरबूज के मार्केट की खोज में निकला मगर मुझे निराशा हाथ लगी । अब वहां ऐसा कुछ नहीं था और जो कुछ तरबूज थे भी वो बहुत छोटे थे ।

फिर मेरा मन किया की क्यों न उस किसान के घर चला जाये जो वह प्रतियोगिता करवाते थे। अब किसान के बेटे ने खेती अपने हाथ में ले लिया था और वो भी प्रतियोगिता करवाते थे मगर उसमे एक अंतर था ।

पुराने किसान ने प्रतियोगिता कराते समय हमसे ये कहा था की जब भी तरबूज खाओ उसके बीज एक जगह इकठ्ठा करने को कहा और एक भी बीज को दांत से दबाने के लिए मना किया और यही बीज वो अगली बार फसल बोने के लिए इस्तेमाल करते थे । असल में हमे तो पता ही नहीं था की हम बिना वेतन उनके बाल श्रमिक बन गए थे जिसमे दोनों का फायदा था ।  वह किसान अपने सबसे अच्छे तरबूजों को ही प्रतियोगिता में इस्तेमाल करते थे जिससे अगली बार और भी बड़े तरबूज उगाये जा सके ।

लेकिन जब किसान के बेटे ने अपने हाथ में बागडोर ले लिया तो उन्होंने ज्यादा पैसा कमाने  के लिए  सबसे बड़े और अच्छे तरबूजों को बेचना शुरू कर दिया और छोटे तरबूज प्रतियोगिता में रखे जाने लगे। धीरे धीरे तरबूज का आकर छोटा होता गया और 6 साल में पर्रा के अंदर अंदर सबसे अच्छे तरबूज ख़त्म हो गए। 

मनुष्यो में नई पीढ़ी 25 साल में बदल जाती है और शायद हमे 200 साल लग जाये ये समझने में की हमने अपने बच्चो शिक्षा देने में कहा गलती कर दी । हिंदी हमारी संस्कृति है । आने वाली पीढ़ी को हिंदी जरूर पढ़ायें ।

बुधवार, 14 सितंबर 2016

सृष्टि का नियम

एक बिजनेसमैन सुबह जल्दी में अपने घर से बाहर आकर अपनी कार का दरवाजा खोलता है। तभी पास बैठे एक आवारा कुत्ते पर उसका पैर पड़ जाता है, कुत्ता उसपर झपटता है और उसके पैर में दाँत गड़ा देता है।
गुस्से में वो 10-12 पत्थर उठाकर कुत्ते को मारता है लेकिन एक पत्थर भी कुत्ते को नहीं लगता और कुत्ता भाग जाता है।
अपने ऑफिस में पहुँचकर वो ऑफिस के सभी पदाधिकारियों की मीटिंग बुलाता है और कुत्ते का गुस्सा उनपर उतारता है।
अपने बॉस का जबरन का गुस्सा झेलकर अधिकारी भी परेशान हो जाते हैं।
सारे अधिकारी अपना गुस्सा अपने से नीचे स्तर के कर्मचारियों पर उतारते हैं और इस प्रकार गुस्से का ये दमनचक्र सबसे निचले स्तर के कर्मचारी ऑफिस बॉय और चपरासी तक पहुँचता है।
अब चपरासी के नीचे तो कोई नहीं। इसलिए अपना गुस्सा वो दारू पर उतरता है और घर जाता है।
बीवी दरवाजा खोलती है और शिकायती लहजे में बोलती है---" इतनी देर से आए ?? "
चपरासी, बीवी को एक झापड़ लगा देता है और बोलता है---" मैं ऑफिस में कंचे खेल रहा था क्या ??? काम था मुझे ऑफिस में, अब भेजा मत खा और खाना लगा। "
अब बीवी भुनभुनाती है कि, बिना कारण चाँटा खाया।
वो अपना गुस्सा बच्चे पर उतारती है और उसकी पिटाई कर देती है।
अब बच्चा क्या करे ??
वो गुस्से में घर से बाहर चला जाता है।
और.......
और........
और.........
बच्चा, एक पत्थर उठाता है और सामने से गुजरते एक कुत्ते को मारता है, पत्थर लगते ही कुत्ता बिलबिलाता, काऊँ काऊँ करता भागता है।
मित्रों, ये सुबह वाला ही कुत्ता था !!!
उसे पत्थर लगना ही था, सिर्फ बिजनेसमैन वाला नहीं लगा, बच्चे वाला लगा। उसका सर्कल कम्पलीट हुआ।
इसलिए आप कभी भी चिंता ना करें।
अगर किसी ने आपको परेशान किया है तो, उसे पत्थर लगेगा........अवश्य लगेगा......बराबर लगेगा।।
इस कारण आप निश्चिन्त रहो।
आपका बुरा करने वाले का,
बुरा अवश्य ही होगा।
ये सृष्टि का नियम है.....

रविवार, 11 सितंबर 2016

अच्छे दिन...... आऐंगे...


एक बार राजा के दरबार मै एक फ़कीर गाना गाने जाता है

फ़कीर बहुत अच्छा गाना गाता है।

राजा कहते हैं
इसे खूब सारा सोना दे दो।

फ़कीर और अच्छा गाता है।

राजा कहते हैं
इसे हीरे जवाहरात भी दे दो।

फकीर और अच्छा गाता है।

राजा कहते हैं
इसे असरफियाँ भी दे दो।

फ़कीर और अच्छा गाता है।

राजा कहते हैं
इसे खूब सारी ज़मीन भी दे दो।

फ़कीर गाना गा कर घर चला जाता है।

और
अपने बीबी बच्चों से कहता है 

आज  हमारे राजा ने गाने का खूब सारा इनाम दिया।

हीरे,जवाहरात,सोना,ज़मीन, असरफियाँ बहुत कुछ दिया।

सब बहुत खुश होते हैं

कुछ दिन बीते

फ़कीर को अभी तक मिलने वाला इनाम नही पहुँचा था...

फ़कीरे दरवार में फिर पहुँचा...

कहने लगा

राजाजी आप के द्वारा दिया गया इनाम मुझे अभी तक नहीं मिला।

राजा कहते हैं ..,,,

अरे फ़कीर

ये लेन देन की बात क्या करता है।

तू मेरे कानों को खुश करता रहा...

और

मैं तेरे कानों को खुश करता रहा।

फकीर बेहोश

यही हाल हिन्दुस्तान का हैं ।

अच्छे दिन...... आऐंगे.......

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

बादशाह का कुत्ता

एक बादशाह अपने कुत्ते के साथ नाव में यात्रा कर रहा था । उस नाव में अन्य यात्रियों के साथ एक दार्शनिक भी था ।

कुत्ते ने कभी नौका में सफर नहीं किया था, इसलिए वह अपने को सहज महसूस नहीं कर पा रहा था । वह उछल-कूद कर रहा था और किसी को चैन से नहीं बैठने दे रहा था ।

मल्लाह उसकी उछल-कूद से परेशान था कि ऐसी स्थिति में यात्रियों की हड़बड़ाहट से नाव डूब जाएगी । वह भी डूबेगा और दूसरों को भी ले डूबेगा । परन्तु कुत्ता अपने स्वभाव के कारण उछल-कूद में लगा था । ऐसी स्थिति देखकर बादशाह भी गुस्से में था । पर, कुत्ते को सुधारने का कोई उपाय उन्हें समझ में नहीं आ रहा था ।

नाव में बैठे दार्शनिक से रहा नहीं गया । वह बादशाह के पास गया और बोला - "सरकार ! अगर आप इजाजत दें तो मैं इस कुत्ते को *भीगी बिल्ली* बना सकता हूँ ।" बादशाह ने तत्काल अनुमति दे दी । दार्शनिक ने दो यात्रियों का सहारा लिया और उस कुत्ते को नाव से उठाकर नदी में फेंक दिया । कुत्ता तैरता हुआ नाव के खूंटे को पकड़ने लगा । उसको अब अपनी जान के लाले पड़ रहे थे । कुछ देर बाद दार्शनिक ने उसे खींचकर नाव में चढ़ा लिया ।

वह कुत्ता चुपके से जाकर एक कोने में बैठ गया । नाव के यात्रियों के साथ बादशाह को भी उस कुत्ते के बदले व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ । बादशाह ने दार्शनिक से पूछा - "यह पहले तो उछल-कूद और हरकतें कर रहा था, अब देखो कैसे यह पालतू बकरी की तरह बैठा है ?"

दार्शनिक बोला -
"खुद तकलीफ का स्वाद चखे बिना किसी को दूसरे की विपत्ति का अहसास नहीं होता है । इस कुत्ते को जब मैंने पानी में फेंक दिया तो इसे पानी की ताकत और नाव की उपयोगिता समझ में आ गयी ।"

*भारत में रहकर भारत को गाली देने वालों के लिए.....*

बुधवार, 7 सितंबर 2016

शिक्षक और शिष्य .....

शिक्षक और शिष्य .....
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वसुंधरा दीदी एक छोटे से शहर के  प्राथमिक स्कूल में कक्षा 5 की शिक्षिका थीं। उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं, मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती, वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं।

कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो वसुंधरा को एक आंख नहीं भाता। उसका नाम आशीष था, आशीष मैली कुचेली स्थिति में स्कूल आ जाया करता है। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान।

व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता। वसुंधरा के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता तो लग जाता.. मगर उसकी खाली खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता कि आशीष शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब है।

धीरे-धीरे वसुंधरा को आशीष से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही आशीष वसुंधरा की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुराई उदाहरण आशीष के नाम पर किये जाते। बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते और वसुंधरा उसको अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं, आशीष ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था।

वसुंधरा को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर महसूस नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता ।

वसुंधरा को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी। पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो वसुंधरा ने आशीष की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी। प्रगति रिपोर्ट कार्ड माता- पिता को दिखाने से पहले प्रधानाध्यापिका के पास जाया करता था, उन्होंने जब आशीष की रिपोर्ट देखी तो वसुंधरा को बुला लिया।

"वसुंधरा.. प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे आशीष के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।"  "मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन आशीष एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है, मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ भी अच्छा लिख सकती हूँ।" वसुंधरा बेहद घृणित लहजे में बोलकर वहाँ से उठ आईं।

प्रधानाध्यापिका ने एक अजीब हरकत की। उन्होंने चपरासी के  हाथ वसुंधरा की डेस्क पर आशीष की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी। अगले दिन वसुंधरा ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह आशीष की रिपोर्ट हैं।

"पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।" उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है।  "आशीष जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षकों से बेहद लगाव रखता है।" अंतिम सेमेस्टर में भी आशीष ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया  है।

वसुंधरा दीदी ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली। "आशीष ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है।"  "आशीष की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है।घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है, जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है।" आशीष की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही आशीष के जीवन की रमक और रौनक भी। उसे बचाना होगा...इससे पहले कि  बहुत देर हो जाए।

"वसुंधरा के दिमाग पर भयानक बोझ तारी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की। आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे, अगले दिन जब वसुंधरा कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत  के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया। मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे  बालों वाले बच्चे आशीष के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता  था।

व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना  दिनचर्या की तरह एक सवाल आशीष पर दागा और हमेशा की तरह आशीष ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक वसुंधरा से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने गहन आश्चर्य से सिर उठाकर उनकी ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं।

उन्होंने आशीष को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर जबरन दोहराने के लिए कहा। आशीष तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत:बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही वसुंधरा ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी।

वसुंधरा अब हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण आशीष के कारण दिया जाने लगा । धीरे-धीरे पुराना आशीष सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब वसुंधरा को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना कोई त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये  नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी करता।

उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और आशीष ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास । विदाई समारोह में सभी बच्चे वसुंधरा दीदी के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और वसुंधरा की  टेबल पर ढेर लग गये ।

इन खूबसूरती से पैक हुए उपहार में एक पुराने अखबार में बद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस पड़े। किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये आशीष लाया होगा। वसुंधरा दीदी ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे।

वसुंधरा ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए। खुद आशीष भी। आखिर आशीष से रहा न गया और वो वसुंधरा दीदी के पास आकर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद उसने अटक अटक कर वसुंधरा को बताया कि "आज आप में से  मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।"

समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है ? मगर हर साल के अंत में वसुंधरा को आशीष से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला। मगर आप जैसा कोई नहीं था।"

फिर आशीष का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों का सिलसिला भी। कई साल आगे गुज़रे और अध्यापिका वसुंधरा अब रिटायर हो गईं। एक दिन उन्हें अपनी मेल में आशीष का पत्र मिला जिसमें लिखा था : "इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपकी अलावा शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात.. मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूँ। आप जैसा कोई नहीं है... डॉक्टर आशीष

साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था। वसुंधरा खुद को हरगिज़ न रोक सकती थीं। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं। उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका  होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के सभी बड़े डॉ, बिजनेसमैन, अन्य अतिथि और यहां तक कि वहां मौजूद फेरे कराने वाले पंडित भी इन्तजार करते करते थक गये थे, कि आखिर कौन आना बाकी है...

मगर आशीष समारोह में फेरों और विवाह के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी अध्यापिका वसुंधरा ने गेट से प्रवेश किया आशीष उनकी ओर तेजी से लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा वेदी पर ले गया।

वसुंधरा का हाथ में पकड़ कर उसने कुछ यूं बोला "दोस्तो आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको अपनी माँ से मिलाऊँगा..! यह मेरी माँ हैं -- !"

इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा, अपने आसपास देखें, आशीष जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता  है..! यह कहानी वाकई बहुत ही मार्मिक हे आज तो मेरी भी अश्रु धरा भी बह निकली ।

ऐसे शिक्षक को मेरा बारम्बार सादर नमन

समोसे की दुकान

समोसे की दुकान

एक बडी कंपनी के गेट के सामने एक प्रसिद्ध समोसे की दुकान थी.
लंच टाइम मे अक्सर कंपनी के कर्मचारी वहा आकर समोसे खाया करते थे.

एक दिन कंपनी के एक मॅनेजर समोसे खाते खाते समोसेवाले से मजाक के मूड मे आ गये.

मॅनेजर साहब ने समोसेवाले से कहा, "यार गोपाल,  तुम्हारी दुकान तुमने बहुत अच्छेसे मेंटेन की है.  लेकीन क्या तुम्हे नही लगता के तुम अपना समय और टॅलेंट समोसे बेचकर बर्बाद  कर रहे हो.? सोचो अगर तुम मेरी तरह इस कंपनी मे काम कर रहे होते तो आज कहा होते..  हो सकता है शायद तुम भी आज मॅनेजर होते मेरी तरह.."

इस बात पर समोसेवाले गोपाल ने बडा सोचा.  और बोला,  " सर ये मेरा काम अापके काम से कही बेहतर है.  10 साल पहले जब मै टोकरी मे समोसे बेचता था तभी आपकी जाॅब लगी थी.  तब मै महीना हजार रुपये कमाता था और आपकी पगार थी १० हजार.
इन 10 सालो मे हम दोनो ने खूब मेहनत की..
आप सुपरवाइजर से मॅनेजर बन गये.
और मै टोकरी से इस प्रसिद्ध दुकान तक पहुच गया.
आज आप महीना ५०,००० कमाते है
और मै महीना २,००,०००

लेकीन इस बात के लिए मै मेरे काम को आपके काम से बेहतर नही कह रहा हूँ.

ये तो मै बच्चो के कारण कह रहा हूँ.

जरा सोचिए सर मैने तो बहुत कम कमाइ पर धंदा शुरू किया था.  मगर मेरे बेटे को यह सब नही झेलना पडेगा.
मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी.  मैने जिंदगी मे जो मेहनत की है,  वो उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे.
जबकी आपकी जिंदगी भर की मेहनत का लाभ आपके मालिक के बच्चे उठाएंगे..
अब आपके बेटे को आप डिरेक्टली अपनी पोस्ट पर तो नही बिठा सकते ना..
उसे भी आपकी ही तरह झीरो से शुरूआत करनी पडेगी..  और अपने कार्यकाल के अंत मे वही पहुच जाएगा जहा अभी आप हो.
जबकी मेरा बेटा बिजनेस को यहा से और आगे ले जाएगा..
और अपने कार्यकाल मे हम सबसे बहुत आगे निकल जाएगा..

अब आप ही बताइये किसका समय और टॅलेंट बर्बाद हो रहा है? "

मॅनेजर साहब ने समोसेवाले को २ समोसे के २० रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहा से खिसक लिये.........................                      जरूर पढ़े