सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

मन का राजा....

मन का राजा....
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राजा भोज वन में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए अपने सैनिकों से बिछुड़ गए और अकेले पड़ गए।
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वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे।  तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर बोझा उठाए गुजरा।
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वह अपनी धुन में मस्त था। उसने राजा भोज को देखा पर प्रणाम करना तो दूर, तुरंत मुंह फेरकर जाने लगा।
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भोज को उसके व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा,
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तुम कौन हो ?
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लकड़हारे ने कहा, मैं अपने मन का राजा हूं।
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भोज ने पूछा, अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी। कितना कमाते हो ?
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लकड़हारा बोला, मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं और आनंद से रहता हूं।
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भोज ने पूछा, तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो ?
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लकड़हारे ने उत्तर दिया, मैं प्रतिदिन एक मुद्रा अपने ऋणदाता को देता हूं। वह हैं मेरे माता पिता। उन्होंने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया, मेरे लिए हर कष्ट सहा।
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दूसरी मुद्रा मैं अपने ग्राहक असामी को देता हूं, वह हैं मेरे बालक। मैं उन्हें यह ऋण इसलिए देता हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वह मुझे इसे लौटाएं।
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तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं। भला पत्नी से अच्छा मंत्री कौन हो सकता है, जो राजा को उचित सलाह देता है, सुख दुख का साथी होता है।
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चौथी मुद्रा मैं खजाने में देता हूं।
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पांचवीं मुद्रा का उपयोग स्वयं के खाने पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं अथक परिश्रम करता हूं।
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छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है। उसका सत्कार करना हमारा परम धर्म है।
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राजा भोज सोचने लगे, मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर जीवन के आनंद से वंचित हूं।
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लकड़हारा जाने लगा तो बोला, राजन् मैं पहचान गया था कि तुम राजा भोज हो पर मुझे तुमसे क्या सरोकार। भोज दंग रह गए।

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